यूं तो पूरा बिहार ही इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है. यहां का जर्रा-जर्रा आकर्षित और प्रेरित करता है. इसी प्रेरक बिहार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है-मुंगेर. मुंगेर और आस-पास का क्षेत्रा ऐतिहासिक और यादगार कारनामों का मुख्य केंद्र रहा है. धार्मिक,ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और कला से लबरेज इस पावन मिट्टी को छूने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो मैं अभिभूत हो उठा.
दरअसल लम्बे समय से मैं इस मिट्टी को स्पर्श करना चाहता था और इत्तेफाकन मौका मिल भी गया. अपनी टीम के साथ सड़क-मार्ग के जरिये मैं निकल पड़ा मुंगेर की तरफ. मुंगेर पहुंचा तो बिलकुल बिहारी अंदाज में भव्य स्वागत हुआ. यहां के जाने-माने थियेटर आर्टिस्ट महेश अनजाना ने भी पुरजोर स्वागत किया. फिर हमलोग जमालपुर में जां-निसार आर्ट एंड फिल्म स्टूडियो के भव्य कार्यक्रम में पहुंचे. यहां भी बहुत प्यार मिला, साथ ही स्थानीय कलाकारों ने अपनी प्रतिभाओं से मन मोह लिया.
मुझे एक पल को यकीन नहीं हुआ कि बिहार के जमालपुर जैसे छोटे से कस्बानुमा शहर में इतनी सारी प्रतिभाएं हैं मगर सच यही था. मैंने सारे कलाकारों को खूब शाबाशी दी और मन बना लिया कि भविष्य में एक भोजपुरी या हिंदी फिल्म का निर्माण करूंगा जिसमें यहां के कलाकारों को भी मौका दूंगा. अगले दिन मैं अपनी टीम और यहां के सहयोगियों और शुभचिंतकों के साथ निकल पड़ा मुंगेर जिले के परिदर्शन पर. वाकई मुंगेर में कई ऐसे पर्यटक स्थल हैं जो अनायास ही आकर्षित करते हैं. मैं भी प्रभावित हुए बिना न रह सका. मुंगेर की स्थापना चन्द्रगुप्त ने की थी. प्राचीन काल में यह नवाब मीर कासिम की राजधानी भी रहा और दानवीर कर्ण से भी जुड़ा हुआ है मुंगेर.
मां चंडिका मंदिर
मुंगेर परिक्रमा की शुरुआत हमने मुंगेर के मां चंडिका मंदिर से की. मंदिर प्रांगण में कदम रखते ही मन को अपूर्व शांति मिली और मां चंडिका के दर्शन को मन उतावला हो उठा. मुख्य पुजारी की मदद से हमलोग दर्शन के लिए बढ़ चले. मैंने बहुत कुछ सुन रखा था इस चमत्कारी मंदिर के बारे में. आखिरकार मां के दर्शन का पल आ ही गया. चंद पलों में हमने मां चंडिका के गुफा-रूपी मंदिर में प्रवेश किया. मन श्रद्धा से भर उठा. यह मंदिर मुंगेर जिला मुख्यालय से लगभग चार किलोमीटर दूर गंगा के किनारे स्थित है. यही कारण है कि इसे ‘श्मशान चंडी’ के रूप में भी जाना जाता है. नवरात्रा के दौरान साधक यहां तंत्रा-सिद्धि के लिए आते हैं.
ऐसी मान्यता है कि इस स्थल पर माता सती की बाईं आंख गिरी थी. यही वजह है कि नेत्रारोगियों को यहां काफी लाभ मिलता है. दूर-दूर से लोग यहां आंखों के असाध्य रोगियों को लेकर आते हैं और मां की पूजा-अर्चना के बाद वे यहां से काजल लेकर जाते हैं. लोगों का मानना है यह काजल नेत्रा रोगियों के लिए संजीवनी की तरह होता है. मुख्य पुजारी ने बताया कि चंडिका मंदिर एक प्रसिद्द शक्तिपीठ है. नवरात्रा के दौरान यहां की छटा देखते ही बनती है. सुबह तीन बजे से ही पूजा शुरू हो जाती है और शाम को श्रृंगार पूजन होता है.
सीताकुंड
सीताकुंड,गर्म पानी का एक कुंड है. मुंगेर आने वाले सीता कुंड देखने जरूर आते हैं. ऐसी मान्यता है माता सीता जब लपटों में से प्रकट हुईं,तब अपने का जलन बुझाने के लिए उन्होंने इसी कुंड में स्नान किया था. इसीलिए इसका विशेष महत्त्व है. यहां सालों भर सैलानी पहुंचते हैं. सीता कुंड का पानी सालों भर गर्म ही रहता है. कड़कड़ाती धूप हो, बरसात हो या सिहरन भरी ठण्ड, हर मौसम में सीता कुंड का पानी उबलता ही रहता है. इस कुंड का दर्शन करके हमने जल का आचमन किया और पान भी. पानी गर्म जरूर था मगर एक अजीब सी मिठास थी. सीता कुंड के ठीक सामने राम कुंड भी है जो ठन्डे पानी का कुंड है. यहां हमेशा आपको शीतल जल मिलेगा. पश्चिम दिशा में तीन जलाशय हैं-लक्समन कुंड,शत्राुघ्न कुंड और भरत कुंड. पास में ही एक ऐतिहासिक मंदिर भी है.
मीर कासिम और दानवीर कर्ण से जुड़ा है मुंगेर किला
हमने मुंगेर किले की तरफ रूख किया. मुंगेर किले का इतिहास बंगाल के नवाब मीर कासिम से जुड़ा हुआ है. बंगाल पर जब अंग्रेजों ने आक्रमण किया ,तो मीर कासिम ने मुंगेर में गंगा तट पर किले का निर्माण करवाया और मुंगेर को ही अपनी राजधानी बना ली. किले के बाहर लगभग तीस फुट गहरा गड्ढा है. इस गड्ढे का निर्माण मीर कासिम ने अंग्रेजों के आक्रमण से बचने के लिए कराया था.किला परिसर में ही मीर कासिम का आवास था.
मीर कासिम ने किला परिसर में ही सुरंग का निर्माण भी कराया. सुरंग का एक सिरा गंगा घाट पर निकलता था. इसी सुरंग के जरिए मीर कासिम की बेगम और अन्य महिलाएं गंगा घाट तक पहुंचतीं थीं. वहीं, सुरंग का दूसरा सीरा पीर नफा पहाड़ की ओर निकलता था लेकिन यह सुरंग अब मिट्टी से भर गई है. किले में तीन द्वार हैं-मुख्य द्वार,उत्तरी और दक्षिणी द्वार. तीन द्वारों पर नवाब मीर कासिम के सैनिक तैनात रहते थे. सन 1885 में यह किला हेनरी डेरोजियो के कब्जे में आ गया जिसका उन्होंने जीर्णोद्धार भी कराया था और उनके प्रयासों से किला द्वार पर एक बड़ी घड़ी भी लगाई गई. किला परिसर में एक योगाश्रम भी है,जहां सैलानियों का आना-जाना लगा रहता है.
किले की परिक्रमा के बाद लगा कि स्थानीय प्रशासन और पुरातात्विक विभाग इसके प्रति उदासीन है. मीर कासिम के सुरंग में मिट्टी भरा पड़ा है और जहां-तहां गन्दगी के अम्बार हैं. इस धरोहर को बचाना बेहद जरूरी है. किले का बहुत सारा हिस्सा क्षतिग्रस्त हो चूका है. किले के पास ही कष्टहरणी घाट है. कहा जाता है कि इस कष्टहरणी घाट में स्नान करने से सारे कष्ट दूर हो जाते हैं. यहीं माता सीताचरण का मंदिर भी है.
इतिहासकार इस किले को महाभारत-काल से भी जोड़ते हैं. कहा जाता है कि जरासंध ने अपने साम्राज्य के पूर्वी सीमान्तर स्थित मुंगेर में इस किले का निर्माण कराया था. जरासंध ने यह किला राजा कर्ण को उपहार में दिया था जिसका जिक्र महाभारत के सभा पर्व के दिग्विजय प्रकरण में है. इसमें मुंगेर के किले की चर्चा की गई है. इससे जाहिर होता है कि मुंगेर के इस किले का निर्माण उस समय हो चूका होगा क्योंकि लोग किले को सिद्ध शक्तिपीठ चंडी स्थान से भी जोड़ते हैं.
यह किला कर्ण की दानवीरता का भी साक्षी है. किंवदंती है कि कर्ण सिद्ध शक्तिपीठ चंडी स्थान में पूजा-अर्चना कर किले के अंदर स्थित ऊंचे टीले से नित्य सवा मन सोना दान करते थे. इस टीले को लोग आज भी कर्ण चौड़ा कहते हैं जहां अब विश्व का प्रथम योग विद्यालय है. महाभारत के इस नायक कर्ण को राष्ट्र कवी रामधारी सिंह दिनकर ने रश्मिरथी के माध्यम से अमरता प्रदान की थी. महाभारत काल के दो हजार वर्षों में इस किले की चर्चा इसलिए नहीं मिलती है क्योंकि नंदवंश,शिशुनाग वंश और मौर्य वंश के मगध राजाओं के काल में इस किले का नाम कई बार बदला गया.
पीर पहाड़
पीर पहाड़ हमेशा मुंगेर के शासकों का महत्त्वपूर्ण व प्रिय स्थल रहा है. यह कई अहम ऐतिहासिक गतिविधियों का गवाह भी रहा है. पीर पहाड़ मुंगेर शहर से लगभग चार किलोमीटर दूर स्थित है. जब शाहजहां के पुत्रा शाह शुजा यहां आए तो उनसे पहले से ही इस पहाड़ पर एक पीर साहब रहा करते थे. पीर साहब की मौत के बाद उनका मकबरा यहां बनवाया गया. तब से इसे पीर पहाड़ के नाम से ही जाना जाता है. शाहजहां के पुत्रा शाह शुजा इसी पहाड़ से बिहार,बंगाल और उड़ीसा का शासन संचालित करते थे. इसके बाद ही मेरे कासिम ने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाई. तब उनके सेनापति गुरगीन खान इसी पीर पहाड़ पर रहते थे. बाद में यहां नील की खेती होने लगी. अंग्रेजों के रेजिडेंट भी यहीं रहते थे. आपको बताता चलूं कि मुंगेर का पीर पहाड़ पहले मुद्गल गिरी कहलाता था क्योंकि यहां मुद्गल नाम के एक ऋषि रहते थे.
पीर शाह नाफह मस्जिद
पीर शाह नाफह मस्जिद का निर्माण 1177 में हुआ था. यह मुंगेर किले के दक्षिणी द्वार के निकट स्थित है. यह मस्जिद कब्र पर्शिया के एक सूफी संत को समर्पित है. इन्हें अजमेर के ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने मुंगेर भेजा था. गुम्बदनुमा कब्र के कक्ष की ऊंचाई 16 फीट है तथा इसके बुर्ज गोलाकार हैं. यहां एक रेस्ट रूम और प्रार्थना कक्ष भी है. सूफी संत के सम्मान में इस स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया है. हर वर्ष एक जनवरी को यहां संगीत का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है.
शाह शुजा का महल
शाह शुजा का महल मुंगेर के खूबसूरत स्थानों में से एक है. बाद में इसे एक जेल के रूप में परिवर्तित कर दिया गया. जेलर के कार्यालय के पश्चिम में तुर्की शैली में बना एक बड़ा सा स्नानागार है. महल के बाहर एक बड़ा सा कुआं है जो एक गेट के माध्यम से गंगा नदी से जुड़ा हुआ है हालांकि अब इस कुएं को ढंक दिया गया है. पहले सैलानियों के लिए यह आकर्षण का केंद्र था.
मुंगेर-प्रवास के दौरान हमने मुंगेर की कला, संस्कृति और सभ्यता को करीब से देखा और महसूस किया. हमने इन जगहों के अलावा उच्चेश्वर नाथ मंदिर, पीपरपांती गुरुद्वारा, श्री कृष्णा वाटिका,खड़गपुर कैथोलिक चर्च,वीर अब्दुल हमीद चौक आदि जगहों की भी हमने परिक्रमा की. मुंगेर से सटे जमालपुर शहर भी कई तरह के धरोहरों को संजोए हुए है. जमालपुर,मुंगेर जिले का एक छोटा सा शहर है मगर यहां कला-संस्कृति और प्रतिभाओं का ग्राफ काफी बड़ा है. जमालपुर में रेलवे का लोकोमोटिव वर्कशाप भी है. कुल मिलाकर मुंगेर की यात्रा काफी यादगार और प्रभावशाली रही. यहां के एनके चैनल पर मेरा इंटरव्यू भी प्रसारित हुआ. इसके लिए चैनल की टीम बधाई की पात्रा है. मुंगेर तक पहुंचने के लिए हर जगह से रेल की सुविधा तो है ही,सड़क मार्ग से यहां तक पहुंचा जा सकता है.
ज्योतिष
कुछ व्यक्ति छोटे-छोटे, मोती जैसे अक्षर लिखते हैं. ऐसे व्यक्ति कलाप्रिय और साहित्यिक रूचि के होते हैं. वे हर चीज के विस्तार पर ज्यादा ध्यान देते हैं. ऐसे अक्षरों वाले व्यक्ति साहित्यकार, स्कालर, दार्शनिक, राजनेता, और सफल पर्यवेक्षक होते है तथा जीवन में निरन्तर और ऐसे व्यक्ति अधिकतर अपना जीवन स्वयं बनाते हैं. जो व्यक्ति लिखावट में शिरोरेखा नहीं खींचते, वे हमेशा स्वतंत्रा रूप से काय्र करना चाहते हैं और अपने जीवन में किसी का दबाव पसंद नहीं करते.
यह सच है कि किसी भी व्यक्ति के वास्तविक स्वभाव को पूरी तरह कभी भी समझा नहीं जा सकता क्योंकि वह हमेशा बदलता रहता है और ऐसा ही लिखावट के बारे में होता है. फिर भी व्यक्तित्व में कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो हमेशा समान रहते हैं जैसे-हमारा बौद्धिक स्तर, हमारे माता-पिता का हम पर प्रभाव और हमारी बुनियादी मनोवैज्ञानिक बनावट आदि का ग्राफोलॉजी द्वारा सही-सही पता लगाया जा सकता है क्योंकि यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि हमारे सभी भावनात्मक और दैहिक कार्यकलापों का केन्द्र और संचालक एक ही है मस्तिष्क. चूंकि हमारी लिखावट, मस्तिष्क द्वारा संचालित एक क्रिया है, इसलिए हमारे व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करती है.