Tue. Nov 19th, 2024

शुक्रवार के दिन संतोषी माता का व्रत करने का प्रावधान है. जो भी भक्त माँ संतोषी का विधि पूर्वक व्रत करता है. माँ संतोषी उनकी सभी मनोकामना पूर्ण करती है. उन्हें धन-धान्य सबकुछ देती हैं. यदि आप भी माँ संतोषी का व्रत करना चाहते हैं तो आपको माँ संतोषी व्रत कथा विधि तथा माँ संतोषी व्रत कथा के बारे में पता होना चाहिए.

संतोषी माता व्रत कथा विधि | Santoshi Mata Vrat Vidhi

संतोषी माता का व्रत करने के लिए इसकी विधि को जानना बेहद जरूरी है. यदि आप सही तरीके से इस व्रत को नहीं करते हैं और कोई गलती करते हैं तो माँ संतोषी नाराज हो जाती है और आपकी मनोकामना पूर्ण नहीं करती है.
– व्रत करने के लिए प्रातःकाल स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें.
– इसके बाद माँ संतोषी के व्रत का संकल्प लें और माँ संतोषी का ध्यान करें.
– पूजा करने के समय माँ संतोषी की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें.
– इसके बाद तांबे का कलश स्थापित करें.
– माँ संतोषी को प्रसाद के रूप में गुड़ और चने अर्पित करें.
– माँ संतोषी की पूजा करें.
– इसके बाद माँ संतोषी की कथा सुनें और आरती करें.
– पूरे दिन व्रत करें और दिनभर यहाँ तक कि रात में भी खट्टी चीज का सेवन न करें. आपके परिवार में भी कोई व्यक्ति खट्टी चीज का सेवन न करे. इस बात का ध्यान रखे.

संतोषी माता व्रत कथा | Santoshi Mata Vrat Katha

एक गाँव में एक बुढ़िया रहती थी. उसके 7 बेटे थे, सातों के विवाह हो चुके थे. 7 बेटों में से 6 बेटे कमाने वाले थे और एक नहीं कमाता था. बुढ़िया अपने 6 बेटों को भोजन बनाकर खिलाती थी. इसके बाद 6 का बचा हुआ झूठा खाना अपने सातवे बेटे को खिलाती थी.

एक दिन वह पत्नी से बोला: देखो मेरी माँ को मुझ पर कितना प्रेम है.
वह बोली: क्यों नहीं, सबका झूठा जो तुमको खिलाती है.
वह बोला: ऐसा नहीं हो सकता है. मैं जब तक आंखों से न देख लूं मान नहीं सकता.
बहू हंस कर बोली: देख लोगे तब तो मानोगे.

कुछ दिनों बाद एक त्योहार के मौके पर घर मे कई प्रकार के भोजन बने जिनमे लड्डू भी बने थे. वह जाँचने के लिए रसोईघर में एक पतला कपड़ा ओड़ कर यह बोल कर सो गया कि उसका सिर दुख रहा है. कुछ समय बाद उसके 6 भाई आए. उन्होने भोजन किया और वह चले गए. पतले कपड़े में से उसने देखा कि उसके जाने के बाद उसकी माँ ने उनकी झूठी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़े उठाकर एक लड्डू बनाया. और बाकी खाना एक थाली में इकट्ठा कर उसे बुलाया.

ये सब देखकर बेटे ने कहा माँ मुझे भोजन नहीं करना, मैं अब परदेश जा रहा हूँ.
माँ ने कहा: कल जाता हो तो आज चला जा.
वह बोला: हां आज ही जा रहा हूँ। यह कह कर वह घर से निकल गया.

चलते समय पत्नी की याद आ गई. वह गौशाला में कण्डे थाप रही थी. उसने पत्नी से परदेस जाने की बात कही तो उसकी पत्नी ने कहा कि आप आनंद से जाओ. भगवान आपकी मदद करें. यहाँ हम अपना ध्यान रख लेंगे. आप हमें कोई निशानी देकर जाएँ.

वह बोला: मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है यह ले लो और अपनी कोई निशानी मुझे दे दो.
वह बोली: मेरे पास क्या है, यह गोबर भरा हाथ है. यह कह कर उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी. वह चल दिया, चलते-चलते दूर देश पहुंचा.

वहाँ एक साहूकार की दुकान थी. वहाँ जाकर कहने लगा: भाई मुझे नौकरी पर रख लो. साहूकार को जरूरत थी, बोला: रह जा.
लड़के ने पूछा: तनखा क्या दोगे.
साहूकार ने कहा: काम देख कर दाम मिलेंगे.

साहूकार की नौकरी मिली, वह सुबह 7 बजे से 10 बजे तक नौकरी बजाने लगा. कुछ दिनों में दुकान का सारा लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना सारा काम करने लगा. साहूकार के सात-आठ नौकर थे, वे सब चक्कर खाने लगे, यह तो बहुत होशियार बन गया. सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में ही उसे आधे मुनाफे का हिस्सेदार बना लिया. वह कुछ वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उसपर छोड़कर चला गया.

इधर उसकी पत्नी को सास ससुर दु:ख देने लगे, सारी गृहस्थी का काम कराके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते. इस बीच घर के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल की नारेली में पानी. एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी, रास्ते में बहुत सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दी.

वह वहाँ खड़ी होकर कथा सुनने लगी और पूछा: बहिनों तुम किस देवता का व्रत करती हो और उसके करने से क्या फल मिलता है. यदि तुम इस व्रत का विधान मुझे समझा कर कहोगे तो मैं तुम्हारा बड़ा अहसान मानूंगी. तब उनमें से एक स्त्री बोली: सुनो, यह संतोषी माता का व्रत है. इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है और जो कुछ मन में कामना हो, सब संतोषी माता की कृपा से पूरी होती है. तब उसने उससे व्रत की विधि पूछी.

संतोषी माता व्रत विधि

वह भक्तिनि स्त्री बोली: सवा आने का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पांच आने का लेना या सवा रुपए का भी सहूलियत के अनुसार लाना. बिना परेशानी और श्रद्धा व प्रेम से जितना भी बन पड़े सवाया लेना. प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रह कर कथा सुनना, इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना, सुनने वाला कोई न मिले तो धी का दीपक जला उसके आगे या जल के पात्र को सामने रख कर कथा कहना. जब कार्य सिद्ध न हो नियम का पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना.

तीन मास में माता फल पूरा करती है. यदि किसी के ग्रह खोटे भी हों, तो भी माता वर्ष भर में कार्य सिद्ध करती है, फल सिद्ध होने पर उद्यापन करना चाहिए बीच में नहीं. उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना. आठ लड़कों को भोजन कराना, जहां तक मिलें देवर, जेठ, भाई-बंधु के हों, न मिले तो रिश्तेदारों और पास-पड़ोसियों को बुलाना. उन्हें भोजन करा यथा शक्ति दक्षिणा दे माता का नियम पूरा करना. उस दिन घर में खटाई न खाना. यह सुन बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी.

रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देखकर पूछने लगी. यह मंदिर किसका है. सब कहने लगे संतोषी माता का मंदिर है, यह सुनकर माता के मंदिर में जाकर चरणों में लोटने लगी और माँ से विनती करने लगी कि माँ मैं निपट अज्ञानी हूँ, व्रत के कुछ भी नियम नहीं जानती, मैं दु:खी हूँ. हे माता जगत जननी मेरा दु:ख दूर कर मैं तेरी शरण में हूँ.

माता को दया आई. एक शुक्रवार बीता कि दूसरे को उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा आ पहुंचा. यह देख जेठ-जिठानी मुंह सिकोडऩे लगे. लड़के ताने देने लगे कि काकी के पास पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी. बहू ने कहा ये तो हम सबके लिए अच्छा है. ऐसा कहकर वह माता के मंदिर चली गई. और माँ से कहा. हे माँ मैंने कब तुमसे पैसा मांगा, मुझे तो मेरा सुहाग वापस चाहिए. तब माँ ने कहा जा बेटी तेरा स्वामी जल्दी आएगा. यह सुनकर वह खुश होकर चली गयी.

माँ संतोषी ने विचार किया कि इसका पति तो इसे स्वप्न में भी याद नहीं करता ऐसे में वह कैसे आएगा. मुझे ही इसकी याद दिलाने के लिए उसके पास जाना पड़ेगा. माँ संतोषी उसके पति के स्वप्न में जाकर बोली कि तेरी बहू घोर संकट में है, वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुध ले. तो वह बोला माई मेरा जाने का मन तो है लेकिन इस कारोबार को किसके सहारे छोड़कर जाऊ.

तब माँ संतोषी ने कहा कि तू सवेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला दण्डवत कर दुकान पर जा बैठ. देखते-देखते सारा लेन-देन चुक जाएगा, जमा का माल बिक जाएगा, सांझ होते-होते धन का भारी ठेर लग जाएगा. बात मानकर उसने ऐसा ही किया और शाम तक सबकुछ सही हो गया. यहाँ से काम निपटाकर वह घर के लिए रवाना हो गया. उधर उसकी पत्नी जंगल में लकड़ी लेने जाती है, लौटते वक्त माताजी के मंदिर में विश्राम करती. वह तो उसके प्रतिदिन रुकने का जो स्थान ठहरा, धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है हे माता! यह धूल कैसे उड़ रही है?
माता कहती है, पुत्री तेरा पति आ रहा है. अब तू ऐसा कर लकड़ियों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख और दूसरा मेरे मंदिर पर व तीसरा अपने सिर पर. तेरे पति को लकड़ियों का गट्ठर देख मोह पैदा होगा, वह यहां रुकेगा, नाश्ता-पानी खाकर माँ से मिलने जाएगा, तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर जाना और चौक में गट्ठर डालकर जोर से आवाज लगाना- लो सासूजी, लकडिय़ों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खेपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है? माताजी से बहुत अच्छा कहकर वह प्रसन्न मन से लकड़ियों के तीन गट्ठर बनाई. एक नदी के किनारे पर और एक माताजी के मंदिर पर रखा.

इतने में मुसाफिर आ पहुंचा. सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा उत्पन्न हुई कि हम यही पर विश्राम करें और भोजन बनाकर खा-पीकर गांव जाएं. इसी तरह रुक कर भोजन बना, विश्राम करके गांव को गया. सबसे प्रेम से मिला. उसी समय सिर पर लकड़ी का गट्ठर लिए वह उतावली सी आती है. लकड़ियों का भारी बोझ आंगन में डालकर जोर से तीन आवाज देती है- लो सासूजी, लकड़ियों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो. आज मेहमान कौन आया है.

यह सुनकर उसकी सास बाहर आकर अपने दिए हुए कष्टों को भुलाने हेतु कहती है- बहु ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक ही तो आया है. आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े-गहने पहिन. उसकी आवाज सुन उसका पति बाहर आता है. अंगूठी देख व्याकुल हो जाता है. माँ से पूछता है यह कौन है? माँ बोली – बेटा यह तेरी बहु है. जब से तू गया है तब से सारे गांव में भटकती फिरती है. घर का काम-काज कुछ करती नहीं, चार पहर आकर खा जाती है.

वह बोला- ठीक है माँ मैंने इसे भी देखा और तुम्हें भी, अब दूसरे घर की ताली दो, उसमें रहूँगा.
माँ बोली- ठीक है, जैसी तेरी मरजी.

तब वह दूसरे मकान की तीसरी मंजिल का कमरा खोल सारा सामान जमाया. एक दिन में राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया. अब क्या था? बहु सुख भोगने लगी. इतने में शुक्रवार आया.

उसने पति से कहा: मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है. पति बोला खुशी से कर लो. वह उद्यापन की तैयारी करने लगी. उसने जेठानी के लड़कों को भोजन के लिए बुलाया. लेकिन जेठानी ने सिखाया कि तुम खाने के बाद खटाई मांगना जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो सके. जेठानी के लड़कों ने ऐसा ही किया लेकिन बहू ने उन्हें खटाई नहीं दी और दक्षिणा में कुछ पैसे दे दिया. उस पैसे से उन लड़कों ने खटाई खरीदकर खा ली.

यह देखकर माताजी रुष्ट हो गई. तभी राजा के दूत उसके पति को बुलाकर राजा के पास ले गए. ये सब देखकर जेठानी बड़ी खुश हुई. उधर बहू रोटी हुई माताजी के मंदिर गई और कहने लगी कि हे माँ ये तुमने क्या कर दिया. तो माँ ने कहा तूने मेरा उद्यापन करके मेरा व्रत भंग कर दिया. तो बहू बोली माँ मैंने भूल से लड़कों को कुछ पैसे दे दिये थे, मुझे क्षमा करो. मैं फिर आपका उद्यापन करूंगी. माँ ने कहा, अब भूल मत करना. माँ ने कहा अब तू जा, तेरा पति तुझे रास्ते में मिल जाएगा. वह निकली, राह में पति आता मिला.

उसने पति से पूछा तो पति ने कहा कि वह इतना धन कमाकर लाया है तो राजा ने कर मांगा था. वही भरने गया था. अब वह घर आ गए और अगले शुक्रवार को फिर उद्यापन किया. इस बार फिर जेठानी ने अपने बेटों को सिखाया कि खाने के पहले ही खटाई मांग लेना. लड़कों ने ऐसा ही किया तो बहू बोली. खटाई किसी को नहीं मिलेगी. आना है तो आओ. इसके बाद उसने ब्राह्मणों को बुलाकर भोजन कराया और उद्यापन किया. इससे संतोषी माता प्रसन्न हुई.

माता की कृपा होते ही नवमें मास में उसके चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ. पुत्र को पाकर प्रतिदिन माता जी के मंदिर को जाने लगी. एक बार माँ ने सोचा कि ये रोज यहाँ आती है क्यों न आज मैं इसके घर चलूँ. यह विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया, गुड़-चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होठ, उस पर मक्खियां भिन-भिन कर रही थी. देहली पर पैर रखते ही उसकी सास चिल्लाई देखो रे, कोई चुड़ैल डाकिन चली आ रही है, लड़कों इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जाएगी. लड़के भगाने लगे, चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे. बहु रौशनदान में से देख रही थी, प्रसन्नता से पगली बन चिल्लाने लगी आज मेरी माता जी मेरे घर आई है. वह बच्चे को दूध पीने से हटाती है. सास ने क्रोधित होते हुए बोला कि इतनी क्या उतावली हो रही है कि बच्चे को पता दिया. इतने में माँ के प्रताप से लड़के ही लड़के नजर आने लगे. वह बोली माँ मैं जिसका व्रत करती हूँ यह संतोषी माता है.

सबने माता जी के चरण पकड़ लिए और विनती कर कहने लगे हे माता! हम मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, व्रत भंग कर हमने बड़ा अपराध किया है, जग माता आप हमारा अपराध क्षमा करो. इस प्रकार माता प्रसन्न हुई. बहू को प्रसन्न हो जैसा फल दिया, वैसा माता सबको दे, जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो.

संतोषी माता की आरती | Santoshi Mata Aarti

यह भी पढ़ें :

Mangalvar Vrat Katha : मंगलवार व्रत कथा एवं पूजन विधि

Brihaspati Vrat Katha : गुरुवार व्रत कथा एवं बृहस्पति देव की आरती

Mangala Gouri Vrat Katha: मंगला गौरी व्रत कथा एवं मंगला गौरी आरती

Related Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *