फिल्म- धर्म संकट में
निर्देशक- फुवाद खान
कलाकार- परेश रावल, अन्नू कपूर, नसीरुद्दीन शाह, मुरली शर्मा, अल्का कौशल, रुशिता पंड्या, ऑरिता घोष
रेटिंग- 1.5 स्टार
फिल्म का शीर्षक है- ‘धर्म संकट में’. इसके तीन मायने निकाले जा सकते हैं. पहला यह कि हमारे मजहब या दीन पर कोई मुश्किल आन पड़ी है; दूसरा, धर्म नामक किसी व्यक्ति के लिए मुश्किल की घड़ी है; तीसरा, कोई इन्सान धर्मसंकट यानी बहुत बड़ी उलझन में है. बेशक यह शीर्षक रोचक है और उत्सुकता जगाता है, मगर शीर्षक से पैदा हुई उत्सुकता को यह फिल्म एक पल के लिए भी आगे नहीं ले जा पाती है. फिल्म में कुछ ऐसा नहीं है जो हमें हैरान कर जाए और जिसकी जानकारी हमें पहले नहीं हो. ऐसे में फिल्म कोई नया विचार या सोचने के लिए नया मुद्दा देकर नहीं जाती, बल्कि आखिर यही घिसा-पिटा उपदेश देती है कि सारे मजहब बराबर हैं और एक जैसी ही बातें कहते हैं. एक उपदेश यह भी कि हमें इन्सानियत को पहले रखना चाहिए, मजहब को बाद में. इसे यूं कहें कि इन्सानियत ही जीवन की गाड़ी का असल पहिया है, न कि मजहबी रीति-रिवाज. अब बताइए, इसमें भला क्या नई बात हुई??
फिल्म धरम त्रिवेदी (परेश रावल) नामक गुजराती ब्राह्मण के आस-पास घूमती है, जिसे मुस्लिमों तथा उनके तौर-तरीकों से चिढ़ है. मां की मौत के बाद एक दिन उसे पता चलता है कि वह गोद ली हुई औलाद है. असल में वह एक मुसलमान मां-बाप का बेटा है; उसका असल पिता अभी जिंदा है और सेनेटोरियम में है. एक बेटे के अपने पिता से मिलने के बीच मजहब किस तरह दीवार बनकर खड़ा हो जाता है, इसी की बानगी इस फिल्म में है. उसकी दुविधा यह है कि पिता से मिलने में सफल होने के लिए वह मुस्लिम तौर-तरीके सीखे, या फिर बेटे की शादी उसकी पसंद की लड़की से करवाने के लिए एक पाखंडी धर्मगुरु नीलानंद बाबा (नसीरुद्दीन शाह) के चरणों में जा बैठे.
यहां हम कथानक एवं चरित्र-चित्रण की बात करें तो शीर्षक के हिसाब से ये सटीक बैठते हैं. लेकिन ‘धर्म संकट में’ की सारी दिक्कतें इसके मकसद और इसकी बुनावट को लेकर हैं. फिल्मकार के पास मकसद तो चिर-पुरातन है ही, इसे वह नए कलेवर में पेश करने में भी असफल रहा है. उसके लेखकों ने उसे ज्यादा कुछ कहने-करने को दिया नहीं है, इसलिए कदम-कदम पर वह कुछ विविध देने को तरसता रहा है. इस वजह से यह एकरस फिल्मी ड्रामा न केवल बेवजह बेहद लंबा हो गया है बल्कि इसके चरित्र हमसे जुड़ भी नहीं पाते हैं. चरित्र गढ़ने पर मेहनत नहीं हुई है और न इसकी पटकथा तथा संवाद ही असरदार है. कुल जमा नतीजा यह निकलकर आता है कि ‘धर्म संकट में’ एक सतही पेशकश के सिवा कुछ और नजर नहीं आती.
फिल्म में परेश मुख्य किरदार में हैं और यकीनन उनकी मौजूदगी से ‘ओ माय गॉड’ की शोहरत को भुनाने की उम्मीद फिल्मकार ने जरूर की होगी. एक कलाकार के तौर पर परेश अपनी दुविधा, अपने अंतर्द्वंद्व को जीने में कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं, लेकिन उनका फिल्म में होना मात्र ही नयापन पेश करने की जरूरत पर कुठाराघात कर जाता है. अगर उनके किरदार को ‘ओ माय गॉड’ के विस्तार के तौर पर पेश करना ही मकसद था, तो फिर फिल्म को भी उसी स्तर पर ले जाया जाना जरूरी था.
फिल्म पहले एक घंटे तक थोड़ी संभली नजर आती है, लेकिन जैसे ही पटकथा के अगले पन्ने खुलते जाते हैं सारी उम्मीद निराशा में बदलती जाती है. अगर इस बात को उठाया भी गया है कि सारे धर्मों में एक ही संदेश है और मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है, तो इसी बात को मजबूती से पकड़कर आखिरी सिरे तक चलने के बजाय बाबा नीलानंद के पाखंडी होने और उसके एक अपराधी होने का घालमेल करके कहानी को हलका कर दिया गया है. अभिनय के कसौटी पर फिल्म औसत ही कही जाएगी, क्योंकि किसी भी कलाकार की अदाकारी आपके साथ लंबे समय तक नहीं रहती है. ऐसे में सिनेमाघरों में ‘धर्म संकट में’ को दर्शकों की तादाद का संकट झेलना पड़े तो हैरानी नहीं होनी चाहिए.
(अजय गर्ग मुख्यधारा की पत्रकारिता में लंबा सफर तय कर चुके हैं. वे दैनिक भास्कर समूह, हिंदुस्तान टाइम्स समूह, दैनिक जागरण समूह, अमर उजाला समूह और एब्सोल्यूट इंडिया जैसे प्रकाशनों में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. अजय एक अच्छे गीतकार और फिल्म समीक्षक भी हैं. देश के कई अखबारों में सिनेमा पर उनके लेख और समीक्षाएं प्रकाशित हो प्रकाशित हो चुकी हैं. अजय एक यायावर भी हैं. उन्हें दुनिया की पुरानी सभ्यताओं, संस्कृतियों को जानने का शौक है. वे अब तक 12 देशों की यात्राएं कर चुके हैं. मुंबई में रह रहे अजय इन दिनों फ्री-लांस पत्रकारिता कर रहे हैं.)