कहते हैं विनम्रता विद्वान और सज्जन पुरुष का गहना है. विनम्रता व्यवहारिक बनाती है और विनम्रता पूर्ण व्यवहार व्यक्तित्व को बड़ा बनाता है. क्या आपने उन लोगों के व्यवहार और बोलचाल के तरीके को कभी गौर किया है जो सफल हैं या फिर जीवन में लगातार ग्रोथ कर रहे हैं.
आपको उन लोगों के व्यवहार में एक अनूठी विनम्रता और झुकाव दिखाई देगा. एक ऐसी बात जो आपको उनकी हर बात मानने के लिए मजबूर करेगी.
व्यवहार में विनम्रता क्यों जरूरी
दरअसल, विनम्रता में है ही ऐसी ताकत जो हर बड़े से बड़े व्यक्ति का दिल जीत ले और हर छोटे से छोटे को अपना बना ले. हम जो सीखते, जानते और समझते हैं यदि उसका अहंकार हमारे सिर पर बैठा है तो यकीं मानिए हम कितने ही धार्मिक क्यों न हो लोग हमसे दूर होते जाएंगे और लोगों की छोड़िए आप खुद ही डिस्टर्ब रहने लगेंगे.
दरअसल, यदि हमारे भीतर सामने वाले के प्रति विनम्रता नहीं है, झुकाव नहीं है तो फिर हम कितने ही बड़े क्यों ना हो, रहेंगे हम छोटे. सामाजिक रूप से हमारी प्रतिष्ठा और विश्वास लगातार टूटता रहेगा. जो धार्मिक है वह विनम्र होगा ही.
अंतरमन की शुद्धता और विनम्रता
विनम्रता अंतरमन की शुद्धि से आती है. अंतरमन तभी शुद्ध होगा जब भीतर के राग, द्वेष खत्म् होंगे. सभी को समान रूप से देखने का भाव आएगा. समत्व भाव तभी आएगा जब व्यक्ति सही मायनों में धार्मिक होगा. धर्म की राह अनुष्ठान, कर्मकांड से होती हुई मन की साधना करती है.
धार्मिकता और विनम्रता
जो व्यक्ति जरा भी धार्मिक है वह विनम्र होगा. घंटो मंदिर में बैठकर पूजा करना और परिवार के सदस्यों को झिड़कर, चिल्लाकर और गाली गलौज के साथ बात करना धार्मिकता के लक्षण नहीं है.
धर्म भीतर परिवर्तन करता है. एक बदलाव जो आत्मा तक पहुंचता है. एक झुकाव जो वाणी में दिखाई देने लगता है और व्यवहार से प्रेम बनकर छलकने लगता है. मंदिर में जाकर, धूप, दीप और अगरबत्ती से मूर्ति को नहीं बल्कि राम, कृष्ण या अन्य देवताओं के गुणों को मूर्ति को प्रतीक उनके भावों को भीतर उतारता है.
व्यक्ति अपने मन को साधता है. हमारे मंदिरों में दंडवत् साष्टांग और हाथ जोड़कर प्रणाम करने का अर्थ ही है भीतर के अहंकार को विलीन कर देना. झुकाव की भावना, विनम्रता का अभ्यास. जो विनम्र नहीं वह धार्मिक नहीं.