एक बार यह अनुभव हो जाए कि मैं अलग और यह शरीर अलग, तो मौत खतम हो गई. मृत्यु नहीं है फिर. और फिर तो शरीर के बाहर आकर खड़े होकर देखा जा सकता है. यह कोई फिलासफिक विचार नहीं है, यह कोई दार्शनिक तात्विक चिंतन नहीं है कि मृत्यु क्या है, जीवन क्या है. जो लोग इस पर विचार करते हैं, वे दो कौड़ी का भी फल कभी नहीं निकाल पाते.
यह तो है एक्सिस्टेंशियल एप्रोच, यह तो है अस्तित्ववादी खोज. जाना जा सकता है कि मैं जीवन हूंं, जाना जा सकता है कि मृत्यु मेरी नहीं है. इसे जीया जा सकता है, इसके भीतर प्रविष्ट हुआ जा सकता है.
लेकिन जो लोग केवल सोचते हैं कि हम विचार करेंगे कि मृत्यु क्या है, जीवन क्या है, वे लाख विचार करें, जन्म—जन्म विचार करें, उन्हें कुछ भी पता नहीं चल सकता है. क्योंकि हम विचार करके करेंगे क्या? केवल उसके संबंध में विचार किया जा सकता है जिसे हम जानते हों. जो नोन (known) है, जो ज्ञात है, उसके बाबत विचार हो सकता है.
जो अननोन (unknown) है, जो अज्ञात है, उसके बाबत कोई विचार नहीं हो सकता. आप वही सोच सकते हैं, जो आप जानते हैं.
कभी आपने खयाल किया कि आप उसे नहीं सोच सकते हैं, जिसे आप नहीं जानते. उसे सोचेंगे कैसे? हाउ टु कन्सीव इट? उसकी कल्पना ही कैसे हो सकती है? उसकी धारणा ही कैसे हो सकती है जिसे हम जानते ही नहीं हैं? जीवन हम जानते नहीं, मृत्यु हम जानते नहीं. सोचेंगे हम क्या? इसलिए दुनिया में मृत्यु और जीवन पर दार्शनिकों ने जो कहा है, उसका दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है.
फिलासफी की किताबों में जो भी लिखा है मृत्यु और जीवन के संबंध में, उसका कौड़ी भर मूल्य नहीं है. क्योंकि वे लोग सोच -सोच कर लिख रहे हैं. सोच कर लिखने का कोई सवाल नहीं है. सिर्फ योग ने जो कहा है जीवन और मृत्यु के संबंध में, उसके अतिरिक्त आज तक सिर्फ शब्दों का खेल हुआ है. क्योंकि योग जो कह रहा है वह एक एक्सिस्टेंशियल, एक लिविंग, एक जीवंत अनुभव की बात है.
आत्मा अमर है, यह कोई सिद्धांत, कोई थ्योरी, कोई आइडियोलाजी नहीं है. यह कुछ लोगों का अनुभव है. और अनुभव की तरफ जाना हो तो ही; अनुभव हल कर सकता है इस समस्या को कि क्या है जीवन, क्या है मौत. और जैसे ही यह अनुभव होगा, ज्ञात होगा कि जीवन है, मौत नहीं है. जीवन ही है, मृत्यु है ही नहीं.
फिर हम कहेंगे, लेकिन यह मृत्यु तो घट जाती है. उसका कुल मतलब इतना है कि जिस घर में हम निवास करते थे, उस घर को छोड्कर दूसरे घर की यात्रा शुरू हो जाती है. जिस घर में हम रह रहे थे, उस घर से हम दूसरे घर की तरफ यात्रा करते हैं. घर की सीमा है, घर की सामर्थ्य है. घर एक यंत्र है, यंत्र थक जाता है, जीर्ण हो जाता है, और हमें पार हो जाना होता है.
अगर विज्ञान ने व्यवस्था कर ली, तो आदमी के शरीर को सौ, दो सौ, तीन सौ वर्ष भी जिलाया जा सकता है. लेकिन उससे यह सिद्ध नहीं होगा कि आत्मा नहीं है.
उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होगा कि आत्मा को कल तक घर बदलने पड़ते थे, अब विज्ञान ने पुराने ही घर को फिर से ठीक कर देने की व्यवस्था कर दी है. उससे यह सिद्ध नहीं होगा, इस भूल में कोई वैज्ञानिक न रहे कि हम आदमी की उम्र अगर पांच सौ वर्ष कर लेंगे, हजार वर्ष कर लेंगे, तो हमने सिद्ध कर दिया कि आदमी के भीतर कोई आत्मा नहीं है.
नहीं, इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता. इससे इतना ही सिद्ध होता है कि मैकेनिजम शरीर का जो था, उसे आत्मा को इसीलिए बदलना पड़ता था कि वह जराजीर्ण हो गया था.
अगर उसको रिप्लेस किया जा सकता है, हृदय बदला जा सकता है, आख बदली जा सकती है, हाथ—पैर बदले जा सकते हैं, तो आत्मा को शरीर बदलने की कोई जरूरत न रही. पुराने घर से ही काम चल जाएगा. रिपेयरमेंट हो गया. उससे कोई आत्मा नहीं है, यह दूर से भी सिद्ध नहीं होता.
और यह भी हो सकता है कि कल विज्ञान टेस्ट-टयूब में जन्म दे सके, जीवन को पैदा कर सके. और तब शायद वैज्ञानिक इस भ्रम में पड़ेगा कि हमने जीवन को जन्म दे लिया, वह भी गलत है. यह भी मैं कह देना चाहता हूं कि उससे भी कुछ सिद्ध नहीं होता.
मां और बाप मिलकर क्या करते हैं? एक पुरुष और एक स्त्री मिलकर क्या करते हैं – स्त्री के पेट में? आत्मा को जन्म नहीं देते. दे जस्ट क्रियेट ए सिचुएशन, वे सिर्फ एक अवसर पैदा करते हैं जिसमें आत्मा प्रविष्ट हो सकती है. मां का और पिता का अणु मिलकर एक अपरचुनिटी, एक अवसर, एक सिचुएशन पैदा करते हैं जिसमें आत्मा प्रवेश पा सकती है.
कल यह हो सकता है कि हम टेस्ट —टयूब में यह सिचुएशन पैदा कर दें. इससे कोई आत्मा पैदा नहीं हो रही है. मां का पेट भी तो एक टेस्ट—टयूब है, एक यांत्रिक व्यवस्था, वह प्राकृतिक है.
कल विज्ञान यह कर सकता है कि प्रयोगशाला में जिन—जिन रासायनिक तत्वों से पुरुष का वीर्याणु बनता है और स्त्री का अणु बनता है, उन —उन रासायनिक तत्वों की पूरी खोज और प्रोटोप्लाज्म की पूरी जानकारी से यह हो सकता है कि हम टेस्ट-टयूब में रासायनिक व्यवस्था कर लें. तब जो आत्माएं कल तक मां के पेट में प्रविष्ट होती थीं, वे टेस्ट-टयूब में प्रविष्ट हो जाएंगी. लेकिन आत्मा पैदा नहीं हो रही है, आत्मा अब भी आ रही है. जन्म की घटना दोहरी घटना है-शरीर की तैयारी और आत्मा का आगमन, आत्मा का उतरना.
आत्मा के संबंध में आने वाले दिन बहुत खतरनाक और अंधकारपूर्ण होने वाले हैं, क्योंकि विज्ञान की प्रत्येक घोषणा आदमी को यह विश्वास दिला देगी कि आत्मा नहीं है. इससे आत्मा असिद्ध नहीं होगी, इससे सिर्फ आदमी के भीतर जाने का जो संकल्प था, वह क्षीण होगा.
अगर आदमी को यह समझ में आने लगे कि ठीक है, उम्र बढ़ गई, बच्चे टेस्ट-टयूब में पैदा होने लगे, अब कहां है आत्मा? इससे आत्मा असिद्ध नहीं होगी, इससे सिर्फ आदमी का जो प्रयास चलता था अंतस की खोज का, वह बंद हो जाएगा. और यह बहुत दुर्भाग्य की घटना घटने वाली है, जो आने वाले पचास वर्षों में घटेगी. इधर पिछले पचास वर्षों में उसकी भूमिका तैयार हो गई है.
आने वाला भविष्य अत्यंत अंधकारपूर्ण और खतरनाक हो सकता है. इसलिए हर कोने से इस संबंध में प्रयोग चलते रहने चाहिए कि ऐसे कुछ लोग खड़े होकर घोषणा करते रहें -सिर्फ शब्दों की और सिद्धातों की नहीं, गीता, कुरान और बाइबिल की पुनरुक्ति की नहीं, बल्कि घोषणा कर सकें जीवत-कि मैं जानता हूं कि मैं शरीर नहीं हूं. और न केवल यह घोषणा शब्दों की हो, यह ड़नके सारे जीवन से प्रकट होती रहे, तो शायद हम मनुष्य को बचाने में सफल हो सकते हैं.
अन्यथा विज्ञान की सारी की सारी विकसित अवस्था मनुष्य को भी एक यंत्र में परिणत कर देगी. और जिस दिन मनुष्य—जाति को यह खयाल आ जाएगा कि भीतर कुछ भी नहीं है, उस दिन से शायद भीतर के सारे द्वार बंद हो जाएंगे. और उसके बाद क्या होगा, कहना कठिन है.
आज तक भी अधिक लोगों के भीतर के द्वार बंद रहे हैं, लेकिन कभी-कभी कोई एक साहसी व्यक्ति भीतर की दीवालें तोड़ कर घुस जाता है. कभी कोई एक महावीर, कभी कोई एक बुद्ध, कभी कोई एक क्राइस्ट, कभी कोई एक लाओत्से तोड़ देता है दीवाल और भीतर घुस जाता है.
उसकी संभावना भी रोज-रोज कम होती जा रही है. हो सकता है, सौ दौ सौ वर्षों के बाद, जैसा मैंने आपसे कहा कि मैं कहता हूं, जीवन है, मृत्यु नहीं है, सौ दो सौ वर्षों बाद मनुष्य कहे कि मृत्यु है, जीवन नहीं है. इसकी तैयारी तो पूरी हो गई है. इसको कहने वाले लोग तो खड़े हो गये हैं.
आखिर मार्क्स क्या कह रहा है! मार्क्स यह कह रहा है कि मैटर है, माइंड नहीं है. मार्क्स यह कह रहा है कि पदार्थ है, परमात्मा नहीं है. और जो तुम्हें परमात्मा मालूम होता है वह भी बाई-प्रोडक्ट है मैटर का. वह भी पदार्थ की ही उत्पत्ति है, वह भी पदार्थ से ही पैदा हुआ है. मार्क्स यह कह रहा है कि जीवन नहीं है, मृत्यु है. क्योंकि अगर आत्मा नहीं है और पदार्थ ही है तो फिर जीवन नहीं है, मृत्यु ही है.
मार्क्स की इस बात का प्रभाव बढ़ता चला गया है, यह शायद आपको पता नहीं होगा. दुनिया में ऐसे लोग रहे हैं हमेशा, जिन्होंने आत्मा को इनकार किया है, लेकिन आत्मा को इनकार करने वालों का धर्म आज तक दुनिया में पैदा नहीं हुआ था. मार्क्स ने पहली दफा आत्मा को इनकार करने वाले लोगों का धर्म पैदा कर दिया है.
नास्तिकों का अब तक कोई आर्गनाइजेशन नहीं था. चार्वाक थे, बृहस्पति थे, एपीकुरस था. दुनिया में अदभुत लोग हुए जिन्होंने यह कहा कि नहीं है आत्मा, लेकिन उनका कोई आर्गनाइजेशन, उनका कोई चर्च, उनका कोई संगठन नहीं था. मार्क्स दुनिया में पहला नास्तिक है जिसके पास आर्गनाइजड चर्च है और आधी दुनिया उसके चर्च के भीतर खड़ी हो गई है. और आने वाले पचास वर्षों में बाकी आधी दुनिया भी खडी हो जाएगी.
आत्मा तो है, लेकिन उसको जानने और पहचानने के सारे द्वार बंद होते जा रहे हैं. जीवन तो है, लेकिन उस जीवन से संबंधित होने की सारी संभावनाएं क्षीण होती जा रही हैं. इसके पहले कि सारे द्वार बंद हो जाएं, जिनमें थोड़ी भी सामर्थ्य और साहस है, उन्हें अपने ऊपर प्रयोग करना चाहिए और चेष्टा करनी चाहिए भीतर जाने की, ताकि वे अनुभव कर सकें.
और अगर दुनिया में सौ – दो सौ लोग भी भीतर की ज्योति को अनुभव करते हों, तो कोई खतरा नहीं है. करोडों लोगों के भीतर का अंधकार भी थोड़े से लोगों की जीवन—ज्योति से दूर हो सकता है और टूट सकता है. एक छोटा—सा दीया और न मालूम कितने अंधकार को तोड देता है.
एक छोटा-सा फूल खिलता है और दूर —दूर के रास्तों पर उसकी सुगंध फैल जाती है. एक आदमी भी अगर इस बात को जानता है कि आत्मा अमर है, तो उस एक आदमी का एक गांव में होना पूरे गांव की आत्मा की शुद्धि का कारण बन सकता है.
लेकिन हमारे मुल्क में तो कितने साधु हैं और कितने चिल्लाने और शोरगुल मचानेवाले लोग हैं कि आत्मा अमर है. और उनकी इतनी लंबी कतार, इतनी भीड़ और मुल्क का यह नैतिक चरित्र और मुल्क का यह पतन! यह साबित करता है कि यह सब धोखेबाज धंधा है. यहां कहीं कोई आत्मा-वात्मा को जानने वाला नहीं है.
यह इतनी भीड़, इतनी कतार, इतनी मिलिटरी, यह इतना बड़ा सर्कस साधुओं का सारे मुल्क में -कोई मुंह पर पट्टी बांधे हुए एक तरह का सर्कस कर रहे हैं, कोई डंडा लिये हुए दूसरे तरह का सर्कस कर रहे हैं, कोई तीसरे तरह का सर्कस कर रहे हैं-यह इतनी बड़ी भीड़ आत्मा को जानने वाले लोगों की हो और मुल्क का जीवन इतना नीचे गिरता चला जाए, यह असंभव है.
और मैं आपको कहना चाहता हूं कि जो लोग कहते हैं कि आम आदमी ने दुनिया का चरित्र बिगाड़ा है, वे गलत कहते हैं. आम आदमी हमेशा ऐसा रहा है. दुनिया का चरित्र ऊंचा था, कुछ थोड़े से लोगों के आत्म— अनुभव की वजह से. आम आदमी हमेशा ऐसा था. आम आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ गया है.
आम आदमी के बीच कुछ लोग थे जीवंत, जो समाज और उसकी चेतना को सदा ऊपर उठाते रहे, सदा ऊपर खींचते रहे. उनकी मौजूदगी, उनकी प्रजेंस, कैटेलेटिक एजेंट का काम करती रही है और आदमी के जीवन को ऊपर खींचती रही है. और अगर आज दुनिया में आदमी का चरित्र इतना नीचा है, तो जिम्मेवार हैं साधु, जिम्मेवार हैं महात्मा, जिम्मेवार हैं धर्म की बातें करने वाले झूठे लोग. आम आदमी जिम्मेवार नहीं है. उसकी कभी कोई रिस्पासबिलिटी नहीं है. पहले भी नहीं थी, आज भी नहीं है.
अगर दुनिया को बदलना हो, तो इस बकवास को छोड़ दें कि हम एक —एक आदमी का चरित्र सुधारेंगे, कि हम एक —एक आदमी को नैतिक शिक्षा का पाठ देंगे.
अगर दुनिया को बदलना चाहते हैं, तो कुछ थोड़े से लोगों को अत्यंत इंटेंस इनर एक्सपेरिमेंट में से गुजरना पड़ेगा. जो लोग बहुत भीतरी प्रयोग से गुजरने को राजी हैं. ज्यादा नहीं, सिर्फ एक मुल्क में सौ लोग आत्मा को जानने की स्थिति में पहुंच जाएं तो पूरे मुल्क का जीवन अपने आप ऊपर उठ जायेगा. सौ दीये जीवित और सारा मुल्क ऊपर उठ सकता है.
तो मैं तो राजी हो गया था इस बात पर बोलने के लिए सिर्फ इसलिए कि हो सकता है कि कोई हिम्मत का आदमी आ जाए, तो उसको मैं निमंत्रण दूंगा कि मेरी तैयारी है भीतर ले चलने की, तुम्हारी तैयारी हो तो आ जाओ. तो वहां बताया जा सकता है कि जीवन क्या है और मृत्यु क्या है.
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं. और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें.
(नोट: यह लेख: ओशोधारा से साभार लिया गया है. Indiareviews.com ओशोधारा का आभारी है. Image source: oshoworld.com)