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चैतन्य हम सभी हैं, लेकिन आत्मा का हमें कोई पता नहीं चलता. अगर चैतन्य ही आत्मा है तो हम सभी को पता चल जाना चाहिए. हम सब चैतन्य है. लेकिन, चैतन्य आत्मा है, इसका क्या अर्थ होगा?

पहला अर्थ : इस जगत में, सिर्फ चैतन्य ही तुम्हारा अपना है. आत्मा का अर्थ होता है, अपना; शेष सब पराया है. शेष कितना ही अपना लगे, पराया है. मित्र हों, प्रियजन हों, परिवार के लोग हों, धन हो, यश, पद-प्रतिष्ठा हो, बड़ा साम्राज्य हो, वह सब जिसे तुम कहते हो मेरा, वहां धोखा है. क्योंकि वह सभी मृत्यु तुमसे छीन लेगी.

मृत्यु कसौटी है, कौन अपना है, कौन पराया है. मृत्यु जिससे तुम्हें अलग कर दे, वह पराया था. और मृत्यु तुम्हें जिससे अलग न कर पाये, वह अपना था.

आत्मा का अर्थ है : जो अपना है. लेकिन जैसे ही हम सोचते है अपना, वैसे ही दूसरा प्रवेश कर जाता है. अपने का मतलब ही होता है कोई दूसरा, जो अपना है. तुम्हें यह खयाल ही नहीं आता कि तुम्हारे अतिरिक्त, तुम्हारा अपना कोई भी नहीं है; हो भी नहीं सकता.

और जितनी देर तुम भटके रहोगे इस धारा में कि कोई दूसरा अपना है, उतने दिन व्यर्थ गये; उतना जीवन अकारण बीता. उतना समय तुमने सपने देखे. उतने समय में तुम जाग सकते थे, मोक्ष तुम्हारा होता; तुमने कचरा इकट्ठा किया. सिर्फ तुम ही तुम्हारे हो.

यह पहला सूत्र है: मेरे अतिरिक्त मेरा कोई भी नहीं है. यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है, बड़ा समाज—विरोधी है. क्योंकि समाज जीता इसी आधार पर है कि दूसरे अपने है; जाति के लोग अपने है; देश के लोग अपने है— मेरा देश, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा परिवार; मेरे का सारा खेल है.

समाज जीता है ‘मेरी’ की धारणा पर. इसलिए धर्म समाज—विरोधी तत्व है. धर्म समाज से छुटकारा है, दूसरे से छुटकारा है. और धर्म कहता है कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा और कोई भी नहीं है.

ऊपर से देखें तो यह बडा स्वार्थी वचन मालूम पड़ेगा; क्योंकि यह तो यह बात हुई कि हम ही अपने है, तो तत्क्षथण हमें लगता है कि यह तो स्वार्थ की बात है.

यह स्वार्थ की बात नहीं है. अगर यह तुम्हें खयाल में आ जाये, तो ही तुम्हारे जीवन में परार्थ और परमार्थ पैदा होगा. क्योंकि जो अभी आत्मा के भाव से ही नहीं भरा है, उसके जीवन में कोई परार्थ और कोई परमार्थ नहीं हो सकता. 

तुम कहते हो दूसरों को मेरा. लेकिन, ‘मेरा’ कहकर तुम करते क्या हो?  मेरा कहकर तुम उन्हें चूसते हो. ‘मेरा’ तुम्हारा शोषण का हिस्सा है, फैलाव है. जिसको भी तुम ‘मेरा’ कहते हो, उसको तुम गुलाम बनाते हो. तुम उसे अपने परिग्रह में परिवर्तित कर देते हो.

मेरी पत्नी, मेरा पति, मेरा बेटा, मेरा पिता— तुम करते क्या हो? इस मेरे के पीछे—इस ‘मेरे’ के परदे के पीछे— तुम्हारे संबंध का मूल आधार क्या है? तुम चूसते हो, तुम शोषण करते हो, तुम दूसरे का उपयोग करते हो. इस दूसरे के उपयोग को तुम सोचते हो परार्थ, तो तुम भ्रांति में हो.
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जब तुम परोपकार करते हो, तब तुम कर नहीं सकते; क्योंकि जिसे अपना ही पता नहीं, वह परोपकार करेगा कैसे? तुम चाहे सोचते हो कि तुम कर रहे हो, गरीब की सेवा, अस्पताल में बीमार के पैर दबा रहे हो, लेकिन, अगर तुम गौर से खोजोगे, तो तुम कहीं-न-कहीं अपने अहंकार को ही भरता हुआ पाओगे. और, अगर तुम्हारा अहंकार ही सेवा से भरता है, तो सेवा भी शोषण है. आत्मज्ञान के पहले कोई व्यक्ति परोपकारी नहीं हो सकता; क्योंकि स्वयं को जाने बिना इतनी बड़ी क्रांति हो ही नहीं सकती.

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे झाड़ रही थी और कह रही थी कि यह मामला क्या है, एक दफा साफ हो जाना चाहिए. तुम मेरे सभी रिश्तेदारों को नफरत और घृणा क्यों करते हो? नसरुद्दीन ने कहा, ‘यह बात गलत है; यह बात तथ्यगत भी नहीं है. और इसका प्रमाण भी है मेरे पास. और प्रमाण यह है कि मैं तुम्हारी सास को अपनी सास से ज्यादा चाहता हूं.’

अहंकार ऐसे रास्ते खोजता है. ऊपर से दिखता है कि तुम परोपकार कर रहे हो; लेकिन, भीतर तुम ही खड़े होते हो. और जितनी सूक्ष्म हो जाती है यात्रा, उतनी ही पकड़ के बाहर हो जाती है. दूसरे तो पकड़ ही नहीं पाते; तुम भी नहीं पकड पाते हो. दूसरे तो धोखे में पड़ते ही हैं; तुम भी अपने दिये, धोखे में, भूल जाते हो, भटक जाते हो.

हम सभी ने अपनी-अपनी भूल-भुलैया बना ली हैं. उसमें हमने दूसरों को धोखा देने के लिए ही शुरू किया था सारा उपाय, आयोजन यह हमने कभी सोचा न था कि अपनी बनाई भूल-भूलैयां में हम खुद ही खो जायेंगे. लेकिन हम खो गये हैं.

पहली बात स्मरण रखो. तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा कोई भी नहीं है. जैसे ही यह स्मरण सघन होता है कि चैतन्य ही आत्मा है, चैतन्य ही मैं हूं और सब ‘पर’ है, पराया है, विजातीय है,

वैसे ही तुम्हारे जीवन में क्रांति की पहली किरण प्रविष्ट हो जाती है; वैसे ही तुम्हारे और समाज के बीच एक दरार पड़ जाती है; वैसे ही तुम्हारे और तुम्हारे संबंधों के बीच एक दरार पड़ जाती है. लेकिन आदमी अपनी तरफ देखना ही नहीं चाहता. देखना कठिन भी है; क्योंकि, देखने के पहले जिस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, वह बहुत संघातक है.

(नोट: यह लेख: ओशोधारा से साभार लिया गया है. Indiareviews.com ओशोधारा का आभारी है. Image source: oshoworld.com

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