कुछ दिनों पहले दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा में हुए मां-बेटी की हत्या की खबर से कानून व्यवस्था के विरूद्ध मन में रोष होना स्वाभाविक था, लेकिन जब यह खुलासा हुआ कि हत्यारा कोई और नहीं बल्कि 15 साल का अपना ही बेटा है तो इस रोष की दशा बदलनी चाहिए. मन परेशान होना चाहिए कि आखिर यह क्या और क्यों हो रहा है? अपने बच्चे को 9 महीने गर्भ रखने वाली मां अगर अपने बेटे को पढ़ने के लिए कहे या किसी बात पर डांटे तो यह इतना बड़ा अपराध कि नाबालिग बेटा सोई हुई अपनी मां पर कैंची और पिज्जा कटर से प्रहार करे. बहन जाग जाए तो उसे भी बेरहमी से मार डाले.
हकीकत है कल्पना नहीं
यह सब कल्पना की उड़ान या पुलिसिया कहानी नहीं है बल्कि घर में लगे सीसीटीवी में दर्ज है कि रात 8:16 मिनट पर बेटा मां और बहन के साथ बाजार से लौटता है तो रात 11: 15 मिनट पर बदले हुए कपड़ों में पीठ पर बैग और हाथ में मोबाइल लिए घर से निकलता है. मां और बहन के प्रति निर्दयता बरतने वाला वह नरपशु अपने आवासीय परिसर के गार्ड से हाथ मिलाता है और गाड़ी में बैठकर चला जाता है.
बताया जाता है कि हर समय मोबाइल से चिपटे रहने वाला यह मातृद्रोही गुस्सैल है. छोटी-छोटी बातों पर भी अक्सर झगड़ पड़ता है. बहन पढ़ाई में अव्वल आती है तो उसे बहन की प्रशंसा चुभती है. मां उसे भी योग्य बनने के लिए कहे, यह उसे स्वीकार नहीं था इसलिए उसने बांस और बांसुरी दोनों ही खत्म कर दिये.
कहां जा रहा है समाज?
ओह आखिर कहां जा रहे हैं? पिता को परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए कमाने बाहर जाना पड़ता है, पर नालायक बेटे ने तो परिवार को ही पूरा समाप्त कर दिया. पाषाण काल से आधुनिक सभ्यता तक का सफर मानवीय संबंधों के परस्पर प्रेम और आकर्षण की गाथा है. आदिमानव से परिवार और समाज की ओर बढ़ना रिश्तों के कारण हीं संभव हुआ जिसने दुनिया की तस्वीर ही बदल दी. अपने परिवार और निकटजनों के जीवन को सुखकर बनाने के लिए तो कभी रिश्तों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करने के लिए मनुष्य ने क्या नहीं किया. ‘आसमान से तारे तोड़ लाने’ की बात अकारण नहीं है.
आधुनिक सुविधाओं में गायब हुए मूल्य
वास्तव में आज की समस्त भौतिक सुख-सुविधाएं और नित नये आविष्कार मानवीय संबंधों से, संबंधों द्वारा, संबंधों के लिए ही तो हैं. दुनिया से अलग-थलग व्यक्ति को धन कमाने, महल खड़ा करने और नये-नये आविष्कारों के लिए इतना परेशान होने की जरूरत ही न थी. संबंधों की इतनी महिमा होते हुए भी इन्हीं की नींव पर खड़ा समाज और उसकी मर्यादा, शांति खतरे में है.
घटनाएं जो शर्मसार करती हैं
ऐसी घटनाएं और भी हैं जो लगातार मीडिया स्थान पा रही हैं. सभी का उल्लेख शर्मिंदा करता है. ये घटनाएं परिवार नामक संस्था पर कलंक हैं, जहां रिश्ते की पवित्रता और गरिमा की खातिर अपना सर्वोच्च बलिदान देने तक से संकोच नहीं किया जाता. विचारणीय है कि आखिर फिजा में ऐसा क्या जहर घुल गया है कि लोग रिश्तों की मर्यादा भूल संवेदनशून्य हो रहे हैं. रिश्तो के सम्मान के लिए अपनी जान तक दी जाती थी. आज जान लेने का सिलसिला क्यों? आखिर खून के रिश्तों को स्वार्थ की काली छाया कलंकित क्यों कर रही है. क्यों सफेद हो रहा है हमारा अपना खून?
ऐसी हो रही है खून के रिश्तों की कहानी
‘खून पुकारता है, ‘खून पानी से गाढ़ा होता है’, ‘अपना-अपना होता है’ जैसे अनेक जुमले अचानक थोथे क्यों दिखाई देने लगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों की अनदेखी कर रहे हैं अथवा उन्हें व्यवहार में उतारने की बजाय केवल उनके गीत गाने तक ही सीमित हैं? इन घटनाओं में यदि हम कन्या भ्रूण-हत्याओं और वैवाहिक संबंधों में बढ़ती दरार को भी शामिल कर दें तो तस्वीर काफी भयावह दिखाई देने लगेगी. इस जहरीले वातावरण का दोषी कौन है और इसका समाधान क्या है?
रिश्तों के बीच कहां जा रही है मानवता
ये प्रश्न हम सभी के हृदय को आन्दोलित करने चाहिए. आखिर रिश्तों के बीच कैक्टस कौन बो रहा है? किसकी नजर लगी है, मेरे देश को. इन प्रश्नों के उत्तर के लिए अपने अंतर्मन को भी टटोलना होगा. क्या हम संबंधों के प्रति ईमानदार हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह टीवी चैनलों पर परोसी जा रही तड़क-भड़क, विकृत संस्कृति, कामुकता और विवाहेत्तर संबंधों को अनदेखा करने के परिणाम हैं?
संस्कारविहीन समाज कहां जाएगा?
अगर हमें इसकी रत्ती-भर भी परवाह हैं तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि यह सब संस्कार-विहीनता के उपउत्पाद हैं. ऐसे आत्मकेन्द्रित लोग हिंसक होकर अपनों की जान लेने तक उतर आते हैं. यह भोगवाद और भौतिकता की मृग-मरीचिका का प्रभाव है कि ये लोग निज सुख-सुविधाओं और अहम के आगे सोचते ही नहीं जबकि हमारे सद्ग्रन्थ हमें त्यागपूर्वक भोग की शिक्षा देते हैं.
पूरे वातावरण को कलुषित करने वाली ऐसी घटनाएं हमारी शिक्षा प्रणाली को नैतिक शिक्षा से विमुख करने के प्रति सावधान करती हैं. नैतिकता कट्टरता या भगवाकरण नहीं बल्कि मानवीय मूल्य हैं जो हमें सिखाते हैं कि समाज में एक दूसरे के प्रति संवेदना होनी चाहिए. अनजान की मदद करने के लिए भी हमें खुद-बखुद आगे आना चाहिए. अगर ऐसा गलत नहीं है तो फिर ऐसे श्रेष्ठ संस्कार राष्ट्र की नई पीढ़ी में कैसे रोपित किये जाएं, यह चिंता सभी को होनी चाहिए.
यह सर्वविदित है कि आज परिवार टूट रहे हैं. संयुक्त परिवार एकाकी हो रहे हैं. यह भी शर्मनाक परन्तु सत्य है कि अब परिवार तो क्या, उसका हर सदस्य भी एकाकी हो चला है. कुछ लोग पैसे की चमक -दमक और आत्म-केंद्रित सोच को पारिवारिक तनाव और कटुता का कारण मानते हैं. यदि सचमुच ऐसा है तो यह कैसी उन्नति है जिसमें मनुष्य में मनुष्यता का लगातार पतन हो रहा है?
दिशाहीन है समाज आखिर कहां पहुंचेंगे हम
क्या आपका मन आपसे यह प्रश्न नहीं करता कि आखिर कहां पहुंच गए हैं हम और हमारा समाज? आपसी संबंधों में तनाव की परिणति हिंसा में होना सचमुच सिहरन पैदा करता है. इसके अनेक कारण हो सकते हैं. आज हम एक ऐसे समाज का अंग बनते जा रहे हैं, जहां हर आदमी आत्मकेंद्रित है. उसमें स्वार्थ कूट-कूटकर भरा है. कोई किसी की बात सुनना ही नहीं चाहता. अब, हर समय तो कोई आपकी प्रशंसा, स्तुति, वंदना नहीं कर सकता, गलत को गलत भी कहना पड़ता है.
यदि परिवार के किसी एक सदस्य को अधिक धन अथवा यश प्राप्त होता है तो बाकी सदस्य उसे ईर्ष्या के रूप में क्यों ले? नशे का बढ़ता चलन भी खतरनाक है. आज हर शादी पार्टी में नशे का प्रचलन बढ़ता जा रहा है. कुछ लोग नशे में सुध-बुध खोकर संबंधों की मर्यादा को भी भूल जातेे हैं. आज नशे के बदलते हुए रूप सामने आ रहे हैं. दौलत का नशा, रूप का नशा, सत्ता का नशा, योग्यता का नशा, ऊँचे संबंधों का नशा, जब और कोई नशा नहीं हो तो अहम का नशा.
क्या यह कटु सत्य नहीं कि आज हम बड़ी-बड़ी बात तो कर सकते हैं, लेकिन अपसंस्कृति के विरुद्ध एक भी कदम उठाते हुए हमारे पांव कांपने लगते हैं. यदि हम अब भी नहीं चेते अपने आपको संस्कारित ढ़ांचे में नहीं ढाला तो बहुत संभव है कि रिश्तों पर पानी फेरती घटनाओं का अगला शिकार हम ही हों.
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