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कुछ फिल्में संवेदना और भावनाओं के दृश्यों से बुनी जाती है. ये कहानियां ऐसी होती हैं जो आम जीवन के भीतर रिश्ते, प्यार और अहसासों के बीच अपने समय को दर्ज करती है. ऐसी फिल्में आम लोगों के लिए नहीं होती. शूजित सरकार की अक्टूबर फिल्मी या सामान्य प्यार कहानी नहीं है और न ही ये आम लोगों के लिए सामान्य हिंदी फिल्मों जैसी है.

क्या खास है अक्टूबर फिल्म

यदि शूजित सरकार की अक्टूबर का लुत्फ उठाना हो तो धैर्य और दिल में भावनाएं चाहिए. फिल्म की कहानी शिउली और डैन के इर्दगिर्द घूमती है. इन दोनों में रिश्ता इतना सा है कि दोनों एक ही कॉलेज से पढ़े हैं और साथ-साथ एक ही होटल में इंटर्न पर आए हैं. न तो शिउली डैन की तरफ आकर्षित होती है, और न डैन शिउली की तरफ. अचानक एक रात होटल की छत से शिउली गिर जाती है और कोमा में चली जाती है. उस रात डैन मौके पर मौजूद नहीं होता, और शिउली गिरने से पहले अपने दोस्तों से पूछती है कि डैन कहां है?

कहानी जो मन को छूती

उधर, शिउली कोमा में पड़ी है और इधर, शिउली का अंतिम वाक्य डैन को परेशान किए हुए है कि शिउली ने गिरने से पहले उसके बारे में क्यों पूछा? इस सवाल का जवाब केवल शिउली दे सकती है, जो कोमा में है लापरवाह और उखड़ा-उखड़ा सा रहने वाला डैन शिउली का हाल चाल पूछने के लिए अस्पताल जाने लगता है. इस दौरान डैन के दिल में शिउली के प्रति हमदर्दी बढ़ने लगती है, जो सामान्य बात है. डैन शिउली की मां के लिए मजबूत कंधे का काम करता है, विशेषकर उस स्थिति में जब जब शिउली की मां का धैर्य तोड़ने के लिए शिउली के चाचा अस्पताल में आते हैं.

किरदार जो मन के करीब हैं

डैन का दिल का साफ, थोड़ा सा आशावादी और धुनी है. हालांकि, उसका लापरवाह रवैया उसके लिए मुश्किलें खड़ी करता है. डैन की नेक नीयत के कारण उसके दोस्त उसके साथ हमदर्दी भी रखते हैं. शूजित सरकार निर्देशित फिल्म अक्टूबर एक हादसे पर आधारित है. इसलिए फिल्म में शोर शराबे की उम्मीद करना भी बेईमानी होगा. फिल्मकार शूजित सरकार ने इश्क विश्क और मौज मस्ती जैसी सीनों पर समय नहीं गंवाया.

कुछ कमियां जो शेष रह गईं

दरअसल, निर्देशक और पटकथा लेखिका का पूरा ध्यान कोमा पीड़ित के परिवार के संघर्ष को दिखाना था. फिर भी, डैन के किरदार के जरिये लेखिका जूही चतुर्वेदी दर्शकों को बीच बीच में हंसने के मौके देती रहती हैं. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि शूजित सरकार ने वरुण धवन को उसके स्टारडम के कारण कास्ट किया है क्योंकि कहानी शिउली की है. कहानी का अंत भी शिउली पर होता है. हालांकि, यह फिल्म वरुण धवन की अभिनय क्षमताओं और संभावनाओं को विस्तार देती है.

क्यों नहीं जुटे दर्शक

कड़वा सच यह भी है कि यदि बनीता संधू के साथ वरुण धवन को लीड भूमिका में न रखा होता तो इस फिल्म को सिनेमा हाल में दर्शक जुटाने मुश्किल हो जाते क्योंकि इस फिल्म की कहानी ठंडी रफ्तार से आगे बढ़ती है. पटकथा दर्शकों के दिल में शिउली के प्रति डैन सा भाव पैदा करने में चूकती है. इसका मुख्य कारण है कि शिउली के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के कारण शिउली या किसी अन्य किरदार को अधिक संघर्ष भी नहीं करना पड़ता. इसके अलावा शिउली दर्शकों के साथ भावनात्मक रिश्ता बनाती कि उससे पहले ही कहानीकार उसको कोमा में भेजा देता है. उदासनीता से भरी फिल्म में सिने दर्शकों को बनाए रखने के लिए हास्य सीन क्रिएट करने पड़ते हैं, जो भावनात्मक जुड़ाव को तोड़ते हैं.

गलतियां जो फिल्म में की गईं

कहानी का केंद्र होने के बावजूद भी नवोदित अभिनेत्री बनीता संधू के हिस्से ज्यादा कुछ नहीं आया. फिल्म देखने के बाद महसूस होता है कि डैन को अधिक महत्व देने के चक्कर में शिउली को अच्छे से खिलने नहीं दिया गया. शिउली की मां के किरदार में गीतांजलि राव प्रभावित करती हैं. इस फिल्म के कुछ संवाद प्रेरणादायक हैं.

दरअसल, यह फिल्म उन परिवारों के लिए किसी दिलासे से कम नहीं है, जो ऐसी मुश्किल परिस्थितियों से गुजर रहे हैं. चलते चलते इतना ही कहेंगे कि शूजित सरकार की अक्टूबर हर किसी के लिए बेहतरीन फिल्म नहीं है.

लेखक फिल्मी कैफे वेबसाइट के संपादक हैं. 

By कुलवंत शर्मा

कुलवंत हैप्पी, फाउंडर एंड कॉलमिस्ट, फिल्मी कैफे.

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