यह वक्त नॉलेज और मैनेजमेंट का है और गीता से बड़ा कोई मैनेजमेंट ग्रंथ नहीं. बढ़ती भौतिक सुविधाओं के बावजूद जीवन लगातार बहुआयामी और जटिल होता जा रहा है. कहीं भी शान्ति एवं संतुष्टि दिखाई नहीं देती, इसकी बड़ी वजह मैनेजमेंट का अभाव या फिर बेहद कमजोर मैनजमेंट होता है.
दरअसल, मैनेजमेंट केवल बाहरी ही नहीं, आतंरिक भी होता है. कभी-कभी स्नेह और सद्भाव की बांसुरी से काम चलाना होता है, लेकिन बात नहीं बनती तो बांसुरी को छोड़ ‘बांस’ भी घुमाना पड़ता है.
गीता सिखाती है मैनेजमेंट?
जनसामान्य गीता को धार्मिक -आध्यात्मिक ग्रंथ मानता है. अधिकांश घरों में गीता तो है, पर अलमारी की शोभा बढ़ाने के लिए. पढ़ी बहुत कम जाती है. जितना पढ़ी जाती है, समझी उससे भी कम जाती है. जितनी समझी जाती है, आचरण में उससे भी कम दिखाई देती है.
सामान्यतः मैनेजमेंट बिजनेस से ही जोड़ा जाता है, लेकिन लाइफ का मैनेजमेंट सबसे जरूरी है. लाइफ मैनेजमेंट का विशद ज्ञान देने वाले श्रीकृष्ण को हमने केवल मंदिरों और रासलीलाओं तक सीमित कर स्वयं को ज्ञान से वंचित कर लिया है. उन्हें पूजा-पाठ में ही उलझा दिया है.
गीता में योगीराज श्रीकृष्ण ‘क्लैव्यं मा स्म गमः’ कायरता और दुर्बलता का त्याग करो का पाठ पढ़ाते हैं. वे कहते हैं ‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं व्यक्लोतिष्ठ परंतप’ यानी हृदय में व्याप्त तुच्छ दुर्बलता को त्यागे बिना सफलता संभव नहीं है.
वास्तव में गीता केवल धार्मिक ग्रन्थ नहीं बल्कि कालजयी मैनेजमेंट ग्रन्थ हैं जिसका असली अर्थ उसे अपनी लाइफ और आचरण में उतारने पर समझ आता है.
जीवन का जरूरी पाठ पढ़ाते हैं राम-कृष्ण
श्रीराम और श्रीकृष्ण हमारे दोनों महानायकों की एक समान विशेषता है कि वे अपने विरोधी से सुलह -समझौते की आखिरी कोशिश करते हैं. दोनो अपने विरोधी के गुणों का सम्मान भी करते हैं.
श्रीराम ने लक्ष्मण को रावण से सीखने के लिए प्रेरित किया तो श्रीकृष्ण लगातार पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और अंगराज कर्ण के गुणों के प्रशंसक रहे. अच्छा काम करने के लिए हमें अपने दुर्बल अहं को दूर करना होगा.
कृष्ण कहते हैं -मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, ईर्ष्यालु, पुण्यात्मा और पापात्मा- इन सभी के लिए जिसकी समबुद्धि हो, उसे उत्तम मानना चाहिए. हमें दोनों तरह के लोग मिलेंगे, शायद बुरे ज्यादा मिलें पर जो नापसंद हैं, उनसे नफरत करने की जगह उनसे सीखा जाए.
राम हनुमान से और कृष्ण अर्जुन से करवाते हैं कार्य
राम, हनुमान से और कृष्ण अर्जुन से बेहतर काम कर सकते हैं, लेकिन दोनों ही खुद कुछ नहीं करते बल्कि कार्य करवाते हैं और दूसरों को प्रेरित करते हैंं. आखिर यही तो मैनेजमेंट है.
कई लोग मैनेजमेंट से जुड़े होने के बावजूद परिस्थिति के अनुसार व्यवहार नहीं करते. वे हर समय अपने ही प्रभाव में होते हैं. परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार करना, अपनी भूमिका को समझना और सामने वाले से कोई काम निकलवाना, ये प्रबंधन (मैनेजमेंट) के गुर (खास नुस्खे) हैं जो हर व्यक्ति नहीं जानता.
हम भले एक ही हैं, लेकिन परिस्थिति के अनुसार हमारी भूमिकाएं बदलती रहती हैं. हमें अपनी भूमिका के अनुसार व्यवहार सीखना चाहिए. गीता को लेते हैं. अर्जुन के मन में अनेक प्रकार की शंकाएं थीं. अनेकानेक प्रश्न थे. एक योग्य प्रबंधक अपने अधीनस्थों की शंकाओं का निराकरण किए बिना अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता.
श्रीकृष्ण एक श्रेष्ठ प्रबंधक, शिक्षक की तरह इस कसौटी पर खरे उतरते हैं.
गीता का सबसे बड़ा ज्ञान
गीताकार कहते हैं कि किसी भी काम को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए. बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए. इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति होगी. आज का युवा कुछ करने से पहले फायदे और नुकसान का नापतौल करता है, फिर जब उस काम को पूरा करने के बारे में सोचता है तो तात्कालिक नुकसान देखने पर उसे टाल देता है, और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाताा है.
दरअसल, विपरीत परिणामों की आशंका के कारण जिम्मेवारी से भागना मूर्खता है. अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए.
और अंत में गीता की दो महत्त्वपूर्ण बातें.
एक- श्रेष्ठ पुरुष (उच्चाधिकारी) पद और गरिमा के अनुसार व्यवहार करे तो सामान्यजन (अधीनस्थ कार्यकर्ता) उसी का अनुसरण करते हैं. यदि वह अनुशासित रहते हुए मेहनत और निष्ठा से काम करे तो संस्था का उच्च शिखर को स्पर्श तय है. विपरीत आचरण पर उसे डूबने से बचाया नहीं जा सकता.
दूसरा- कॉम्पिटिशन के दौर में कुछ स्मार्ट लोग अपना काम तो कर लेते हैं, लेकिन साथियों को हतोत्साहित करते हैं. श्रेष्ठ और अभिनन्दनीय वही है जो दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत बनें तो भविष्य सारे लोग उसका अनुसरण करेंगे.