हर साल दुनिया भर में 8 मार्च को महिला दिवस मनाया जाता है. इस दिन महिला सशक्तिकरण और उनके अचीवमेंट्स पर पर बात की जाती है. ताकि लोग प्रेरित हो सकें और समाज में व्याप्त रुढ़ियों को खत्म करने की कोशिश करें. समाज में व्याप्त रुढ़ियों को खत्म करने में थोड़ा हाथ हमारी फिल्म इंडस्ट्री का भी है.
बदलते हुए सिनेमा ने महिलाओं की ऐसी समस्याओं पर लोगों का ध्यान केंद्रित किया है जिन्हें लोग अक्सर समस्या या मुद्दा समझते ही नहीं थे. आइए जानते हैं (Female lead Bollywood movies) उन फिल्मों के बारे में जिन्होंने समाज का नजरिया बदलने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.
पिंक
‘नो… मीन्स नो’ जैसा मैसेज देने वाली फिल्म ‘पिंक’ एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दे पर आधारित है. समाज ने हमेशा ही महिलाओं की आजादी को उनके बिगड़ने की तरह देखा है. महिलाओं की आजादी के साथ हमेशा उनका सम्मान छिन जाता रहा है. ये फिल्म महिलाओं की उसी आजादी को सम्मान दिलाती है. फिल्म में अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू जैसे कलाकार हैं.
थप्पड़
तापसी पन्नू स्टारर फिल्म थप्पड़ ने भी समाज की स्टीरियो टाइप इमेज तोड़ने की कोशिश की है. फिल्म का डॉयलाग ‘एक थप्पड़ ही तो है, पर नहीं मार सकता’ लोगों के दिल की गहराई तक प्रहार करता है. इस फिल्म के जरिए घरेलू हिंसा जैसे मामले को उठाया गया है.
पैडमैन
एक्टर अक्षय कुमार की फिल्म ‘पैडमैन’, जो साल 2018 में आई थी. ये फिल्म महिलाओं की माहवरी की समस्या पर आधारित थी. सामान्यत: लोग इस विषय पर बात करने से बचते थे, लेकिन इस फिल्म के आने के बाद लोगों ने इस बारे में बात करना शुरु किया. इतना ही नहीं इस फिल्म के बाद सेनेटरी पैड को टैक्स फ्री कर दिया गया. फिल्म में राधिका आप्टे और सोनम कपूर जैसे कलाकार थे.
टॉयलेट- एक प्रेम कथा
महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर बात हो तो फिल्म ‘टॉयलेट- एक प्रेम कथा’ को कैसे भूला जा सकता है. यह फिल्म ऐसी समस्या पर आधारित थी जो सालों से चली आ रही थी. घर में बाथरूम न होने की वजह से लड़कियों को बाहर शौच के लिए जाना पड़ता था. इस वजह से वे कई बार हादसों की शिकार भी हो जाती थीं. इस फिल्म ने महिलाओं के खुले में शौच की प्रथा को बंद करने में मदद की. फिल्म में अक्षय कुमार और भूमि पेडनेकर जैसे स्टार्स हैं.
द लास्ट कलर
इस फिल्म में एक्ट्रेस नीना गुप्ता हैं. फिल्म में विधवा महिलाओं के बारे में बताया गया है कि कैसे पति की मौत के बाद वे खुद को दुनिया से अलग कर लेती हैं. उनकी जिंदगी में केवल एक ही रंग रह जाता है, सिर्फ सफेद रंग. पति की मौत के बाद भी जिंदगी होती है, रंग होते हैं, शौक होते हैं. यह बताया है फिल्म ‘द लास्ट कलर’ में. यह फिल्म समाज की दक़ियानूसी सोच पर एक तमाचा है.