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गत दिवस इस समाचार ने चैंकाया कि जापान में एक ट्रेन के 20 सैंकेंड पहले स्टेशन से रवाना होने के कारण यात्रियों को हुई ‘अत्यधिक परेशानी’ के लिए माफी मांगी गई. समय का पालन करने और अपनी शिष्टता के लिए जाना जाने वाला जापान के तोक्यो और उसके उत्तरी उपनगरों को जोड़ने वाली सुकुबा एक्सप्रेस ट्रेन मिनामी नगरेयामा स्टेशन से

9ः44ः40 की बजाय 9ः44ः20 पर रवाना हो गई थी. सुकुबा एक्सप्रेस कंपनी की ओर से जारी माफी में कहा गया है, ’यात्रियों को हुई भारी परेशानी के लिए हम बहुत अधिक माफी चाहते हैं.’ फर्म का कहना हे कि हालांकि इस संबंध में किसी यात्राी ने शिकायत नहीं की. इस घटना के कारण किसी यात्राी की ट्रेन नहीं छूटी थी.

बुलेट ट्रेन सहित जापान की रेलवे प्रणाली अपनी समयबद्धता के लिए प्रसिद्ध है. अगर ट्रेन पांच मिनट भी लेट हो जाये तो यात्रियों को विलम्ब का सर्टिफिकेट दिया जाता है जिसे यात्राी अपने कार्यालय आदि स्थानों पर प्रस्तुत कर सकते हैं तो दूसरी ओर हमारी स्थिति यह है कि ‘जाना था जापान, पहुंच गये चीन’.

20 नवम्बर को दिल्ली से कोल्हापुर महाराष्ट्र जाने वाली ट्रेन मथुरा स्टेशन से गलत सिग्नल की वजह से भटक कर मध्यप्रदेश के बानमोर स्टेशन पर जा पहुंची. खास बात यह कि न तो किसी को बीच रास्ते इस गलती का अहसास हुआ और न ही किसी ने माफी मांगी पर हां, भटके हुए यात्रियों को उनके सही गंतव्य पर पहुंचाने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था जरूर कर दी गई.

जहां तक भारतीय रेल व्यवस्था का प्रश्न है, सुरक्षा, संरक्षा, अनुशासन और सुविधाओं में मामले में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है. दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा नेटवर्क होते हुए भी हमारे यहां किराया दुनिया में सबसे कम है. शायद इसीलिए यहां एक-दो घंटे देरी को सामान्य मानने वाले यह जानकर चकित होते हैं कि विदेश में देरी पर हर्जाना दिया जाता है. विश्व के अनेक देशों की अपनी यात्रा के दौरान मैंने भी वहां की रेल सुविधाओं के अंतर को अनुभव किया है.

हालांिक मुझे कभी ट्रेन लेट होने का कोई अनुभव नहीं है लेकिन हमारे एक मित्रा के अनुसार, ‘एडिनबर्ग से लंदन तक उनकी यात्रा के दौरान वर्जिन ईस्ट कोस्ट रेलवे की नान स्टाप ट्रेन तकनीकी कारणों से एक स्टेशन पर रुक गई तो यात्रियों को ट्रेन लेट होने की जानकारी देते हुए कहा गया कि जो यात्राी लंदन जल्दी पहुंचना चाहते हैं. उनके लिए बाहर फ्री बस सेवा उपलब्ध है.

कुछ समय इंतजार के बाद ट्रेन रवाना हुई जो अपने निश्चित समय से 30 मिनट लेट लंदन पहुंची. चलती ट्रेन में एक अधिकारी ने हर यात्राी के पास जाकर देरी के लिए क्षमा मांगी और सभी को एक फार्म दिया जिसे भर कर यात्रा टिकट के साथ भेजना था. मेरे मित्रा को उस समय बहुत आश्चर्य हुआ जब भारत लौटने के कुछ दिन बाद उन्हें रेल कम्पनी की ओर से 30 पाउंड का चेक प्राप्त हुआ.

फिलहाल भारत में इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती क्योंकि आज भी रेलवे की आय का सबसे बड़ा स्रोत आरक्षण रद्द कराने पर लगाया गया शुल्क है. आश्चर्य तो यह कि आरक्षण रद्द कराने और आरक्षण रद्द होने में अंतर को कोई समझने को तैयार नहीं. यथा एक व्यक्ति तीन महीने पूर्व किराया चुकाकर आनलाइन आरक्षण कराता है. उसे वेटिंग टिकट प्राप्त हुई. उसे आशा होती है कि नियत समय तक टिकट ‘कन्फर्म’ हो जायेगा लेकिन ऐसा न होने पर न केवल उसका टिकट स्वतः रद्द हो जाता है बल्कि उससे भारी भरकम शुल्क वसूला जाता है. वह एक तो पूर्व निर्धारित यात्रा नहीं कर पाता अथवा जैसे-तैसे भीड़ वाले सामान्य डिब्बे में जाने को बाध्य होता है तो दूसरी ओर उस पर आर्थिक दंड रूपी दोहरी मार बिना अपराध सजा का निकृष्ट उदाहरण है.

हर बजट में दर्जनों नई ट्रेनें चलाई जाती है परंतु जनसंख्या और बेरोजगारी की अधिकता के कारण हमारी गाड़ियों पर भीड़ का अत्यधिक दबाव है. कई बार छत पर बैठकर यात्रा करने के दृश्य भी देखने को मिलते है. किसी भी ट्रेन के  चार अनारक्षित सामान्य डिब्बों में दो दर्जन आरक्षित डिब्बों से अधिक यात्रियों का होना सामान्य बात है.

त्यौहारों और मेलो के दौरान  स्थिति अत्यंत गंभीर होकर बेकाबू भी हो जाती है. ऐसे अवसरों पर प्लेटफार्म टिकट की बिक्री बंद कर दी जाती है ताकि केवल यात्रा करने वाले ही प्लेटफार्म पर आयंे. इसके बावजूद पिछले दिनों मुबई स्टेशन पर तथा कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली में भगदड़ में अनेको जानें जाना दर्दनाक है. आदर्श स्थिति तो यह है कि सभी को आरक्षण मिले.

आनलाइन आरक्षण से कुछ सुधार हुआ है लेकिन आज भी लंबी -लंबी लाइनों में लगकर ‘तत्काल’ टिकट प्राप्त करना ‘टेढ़ी खीर’ है, अतः यह आवश्यक है कि जिस अनुपात में यात्रियों की संख्या बढ़ रही है, सामान्य डिब्बों की संख्या भी बढ़नी चाहिए. आखिर किराया चुकाने के बाद भी किसी परेशान, मजबूर यात्राी को खचाखच भरी बोगी में लटककर या शौचालय के पास फर्श पर बैठ कर यात्रा के लिए क्यों विवश होना पड़े? आखिर इन मजबूर लोगों पर जीआरपी तथा आरपीएफ के सिपाही से ज्यादती क्यों करें? इन्हें क्यों अपनी गरीबी का जुर्माना भुगतना पड़े?

निश्चित रूप से इस सरकार के आने के बाद से रेलवे स्टेशनों की तस्वीर जरूर बदली है. देश का लगभग हर रेलवे स्टेशन अब साफ सुथरा दिखाई देता है लेकिन मुख्य समस्या जस की तस बनी हुई है. समय पालन और सुरक्षा के मामले में किसी सकारात्मक परिवर्तन का अब भी इंतजार है.  पिछले दिनों लगातार कुछ रेल दुर्घटनाओं ने भारतीय रेलवे की छवि को प्रभावित किया इसीलिए रेलवे को पटरी पर लाने के लिए कार्यरत ‘प्रभुजी’ का विभाग बदलने  के लिए मजबूर होना पड़ा. नये मंत्राी भी लगातार प्रयासरत हैं लेकिन भारत का सबसे बड़ा संस्थान होने के कारण रेलवे का बुनियादी ढ़ांचा और कर्तचारियों, अधिकारियों की कार्यशैली बदले बिना सुधार की गति बहुत धीमी ही रहने वाली है.

भारतीय रेल भारत की एकता, अखंडता में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इसीलिए सरकार सीमावर्ती क्षेत्रों तक रेलवे का विस्तार कर रही है. पिछले दिनों अपने पूर्वोत्तर प्रवास के दौरान अरूणाचल तथा त्रिपुरा में हाल ही में आरम्भ हुई रेल सेवा का अनुभव प्राप्त किया.  स्विटरजरलैंड में हजारों फीट की ऊंचाई पर रेल पहुंचे सौ से भी अधिक वर्ष हो चुके हैं लेकिन हम अपने सभी राज्यों, विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों को अब तक रेलवे नेटवर्क पर नहीं ला सके हैं. कारण निवेश की कमी है. इस कारण बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने का कार्य बाधित हो रहा है. पटरियों पर बढ़ते बोझ के कारण वर्षों पुरानी रेलवे लाइनों को बदलने तथा पुलों की मरम्मत,नये पुल निर्माण, चैकीदार रहित क्रासिंग की स्थिति में बदलाव से सुरक्षा संबंधी उपकरणों के उपयोग तक कार्य जिस गति से होना चाहिए, नहीं हो पा रहा है.

सरकार को सार्वजनिक निजी भागीदारी यानी पीपीपी पर बल देना चाहिए तो अन्य स्रोतों से भी धन जुटाना चाहिए. हर टिकट पर परिचालन मूल्य का मात्रा आधा लेने की जानकारी देना एक सीमा तक ही सही हो सकता हैं परंतु राजनैतिक कारणों से किराये में वृद्धि को अनावश्यक रूप से रोकना भी समस्या का विस्तार करता है.

जरूरत है किराये को तर्क संगत बनाया जाये. यदि दिल्ली कैंट से रिवाड़ी के 15 रुपये के मुकाबले उससे आधे से भी कम दूरी पर दिल्ली मैट्रो जनकपुरी से नोएडा तक 60 रुपये किराया ले रही है तो स्पष्ट है कि जनता किराया देती है बशर्ते सुविधायें दी  जाये. रेलवे में  जिम्मेवारी तय की जाये और किसी भी कोताही के लिए जुर्माने और हर्जाने का संवैधानिक प्रावधान होना चाहिए.

By डॉ. विनोद बब्बर

वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार.

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