कांग्रेस जिस बुरे वक्त में पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंपने जा रही है, यह उनके लिए चुनौती होगी. अभी तक उन्होंने कोई चमत्कारिक करिश्मा डूबती कांग्रेस के लिए नहीं कर दिखाया है. एक के बाद एक ढहते कांग्रेसी गढ़ों को भी बचाने में राहुल गांधी नाकाम रहे हैं. कांग्रेस का किला माने जाने वाले दक्षिण और पूर्वोतर भारत से पार्टी का सफाया हो चला है. गोवा, त्रिपुरा और मणिपुर में वक्त पर फैसला न लेने की वजह से कांग्रेस की जमीन खिसक गई, जबकि कुशल नेतृत्व और सधी और सटीक रणनीति की वजह से भाजपा के हाथ बाजी लगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि के आगे राहुल गांधी अपने को स्थापित करने में फिलहाल नाकाम रहे हैं. आम जनमानस में खुद को भरोसेमंद नहीं बना पाए हैं. विपक्ष आज भी उन्हें पप्पू कहकर बुलाता है.
गुजरात में दिखाई ताकत
हालांकि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में राहुल एक अलग रंग में दिखाई दिए. उन्होंने जनता का विश्वास भी जीता और विकास पागल हो गया है जैसे नारों ने मीडिया का ध्यान भी खींचा. कुल मिलाकर गुजरात में जिस तरह के तेवर राहुल ने दिखाए उससे भाजपा परेशान हुई है.पीएम मोदी और अमित शाह की मुश्किल बढ़ गई हैं. जीएसटी, नोटबंदी, बेगारी और बढ़ती महंगाई पर हमला बोल वह गुजरात की जनता की दुखती रग को पकड़ने में कामयाब हुए हैं. व्यापारी वर्ग को अपने सम्बोधन से काफी प्रभावित किया है. गुजरात के नतीजे चाहे जो भी हों लेकिन एक बात तो तय है कि पूर्व के प्रदर्शन से कांग्रेस कुछ बेहतर कर सकती है.
यहां सफल हुए हैं राहुल
गुजरात में पाटीदार आरक्षण आंदोलन के बाद नए समीकरण बने हैं. कांग्रेस ने भाजपा को राज्य से बाहर का रास्ता दिखाने के लिए दलित, पटेल और ओबीसी नेताओं को लेकर नया गठजोड़ तैयार करने में सफल रही है. नया गठजोड़ हिन्दुत्वादी होते हुए भी गैर भाजपाई होगा. इस सियासी नीति में राहुल गांधी की भूमिका अहम रही है. दूसरी बात गुरुदासपुर के बाद चित्रकूट उपचुनाव में पार्टी की जीत से हौंसले बुलंद हैं. इस जीत से कांग्रेस और राहुल गांधी को नई उम्मीद बंधी है क्योंकि मोदी की सुनामी के आगे कांग्रेस और राहुल गांधी टिक नहीं पा रहे थे.
कांग्रेस के सामने है ये संकट
कांग्रेस शासित राज्यों पर भाजपा का कब्जा जारी है. अब तक उसका प्रभाव अठारह राहुल गांधीऔर कांग्रेस की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा हिमाचल प्रदेश को बचाना होगा क्योंकि वहां कांग्रेस की सत्ता है जबकि भाजपा अपनी वापसी के लिए पूरी कोशिश में है. सवाल उठता है कि गुजरात चुनाव के पूर्व पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंप कर कांग्रेस क्या संदेश देना चाहती है. इस फैसले से उसे क्या सियासी लाभ मिलेगा?
राहुल को जल्दी अध्यक्ष बनाने का दबाव
इसके पीछे माना यह जा रहा है कि गुजरात और हिमाचल के नतीजे चाहे जो भी हों अगर कांग्रेस राहुल गांधी को नई जिम्मेदारी नतीजों के बाद सौंपती है, तो परिणाम विपरीत आने पर जहां पार्टी के भीतर से राहुल विरोधी खेमा हावी होगा, वहीं ताजपोशी अधर में लटक सकती है. विपक्ष को भी घेरने का मौका मिल जाएगा क्योंकि चुनाव परिणाम के बाद भाजपा और दूसरे विपक्षी राहुल गांधी के कार्य की समीक्षा करने लगेंगे और पराजय की स्थिति में यह ताजपोशी टल सकती है. उस स्थिति में पार्टी और सोनिया गांधी कोई खतरा नहीं लेना चाहती क्योंकि उस स्थिति में उनके पास कोई जवाब नहीं होगा? इसके अलावा पार्टी में उठने वाले राहुल विरोध को भी थामने में वह कामयाब होगी. इसलिए राहुल समर्थक खेमा और सोनिया गांधी कोई जोखिम नहीं लेना चाहती हैं.
सोनिया के बाद अब बदलेगी कांग्रेस की कमान
राहुल की ताजपोशी की दूसरी सबसे बड़ी वजह सोनिया गांधीकी तबीयत मानी जा रही है. यही वजह है कि उन्होंने गुजरात और हिमाचल में चुनावी प्रचार से अपने को दूर रखा. वह अपनी मौजूदगी में राहुल गांधीको पार्टी की कमान सौंप बेफ्रिक होना चाहती हैं. वे भी नहीं चाहती कि कांग्रेस की कमान नेहरू और गांधी परिवार से अलग किसी के हाथ में जाए.
कांग्रेस के इतिहास को देखा जाय तो सोनिया गांधीका सबसे लंबा कार्यकाल रहा है. 17 साल तक उन्होंने पार्टी की कमान अपने पास रखी. उनके लिए कांग्रेस संविधान में संशोधन भी हुआ क्योंकि आम तौर पर यह कार्यकाल एक साल का होता था. कांग्रेस के अंतिम अध्यक्ष सीताराम केसरी थे. इसके बाद पार्टी की कमान 1998 से सोनिया गांधी के हाथ रही. अब यह जिम्मेदारी राहुल गांधी को सौंपी जा रही है, लेकिन उनके सामने काफी चुनौतियां हैं. कांग्रेस को इस दुर्दिन से निकालता उनकी पहली वरीयता होगी. गुजरात और हिमाचल तो अग्नि परीक्षा है ही, असली शक्ति परीक्षण 2019 का महासंग्राम होगा. नरेंद्र मोदी राहुल गांधी की सबसे बड़ी चुनौती हैं. अब देखना यह होगा कि वह इस जिम्मेदारी को किस तरह निभाते हैं.
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