हर साल की तरह प्रदूषण से जूझ रही दिल्ली में सोमवार से स्कूल खुलने जा रहे हैं. दिल्ली सरकार ने 29 नवंबर से स्कूलों को फिर से खोलने का आदेश दिया है, साथ ही सरकारी कर्मचारियों को दी जा रही वर्कफ्रॉम होम की सुविधा भी खत्म करने की घोषणा की है.
खैर, देर-सवेर यह होना ही था. जाहिर है स्कूलों का खुलना सुखद संकेत हैं, लेकिन सवाल यह है कि अधिकतम मानकों से कहीं गुना ज्यादा स्तर के प्रदूषण को झेल रही राजधानी में वाकई में क्या प्रदूषण इस स्तर पर आ गया है कि कोरोना और डेंगू के बीच प्रदूषण की मुसीबत में बच्चों के लिए स्कूल खोले जाएं और पाबंदियों में ढील दी जाए?
बुधवार को राजधानी दिल्ली और एनसीआर में प्रदूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र, दिल्ली सरकार सहित पंजाब, हरियाणा सरकारों को आगाह भी किया कि आने वाले समय में प्रदूषण कम करने के लिए वैज्ञानिक उपायों पर योजना बनाई जाए.
यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए यह भी कहा कि जब मौसम खराब होता है तब आपको उपाय सुझते हैं. वायु प्रदूषण को रोकने के लिए और भी उपाय किए जाने चाहिए.
कोर्ट ने कहा कि- आपको अंदाजा है हम दुनिया को क्या संदेश दे रहे हैं?
यही नहीं कोर्ट ने केंद्र सरकार को तल्ख लहजे में कहा कि हवा का बहाव अच्छा है इसलिए बच गए, लेकिन आपने क्या किया? इस पर सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि हम तीन दिन मॉनीटर करेंगे.
बहरहाल, खबरों को एक तरफा रखा जाए तो भी बीते 16 नवंबर से चला आ रहा 403 का AQI अब 290 तक पहुंचा जो मानक से कोसो दूर है. जाहिर है ऐसे में क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए कि राजधानी की आबोहवा में जहरीले कण अब भी मौजूद हैं और सबकुछ वैसा सामान्य नहीं हुआ कि हम एक साफ वातावरण का हिस्सा बन जाएं.
ऐसे में सवाल फिर वही है कि स्कूल जाने, वहां समय गुजारने और वहां से लौटने की बच्चों की दुनिया कितनी सुरक्षित होगी?
दरअसल, प्रदूषण को रोकने के सरकारी दावे हमेशा से एक जैसे रहे हैं. कंस्ट्रक्शन बंद होना, बड़े वाहनों की शहरों में एंट्री ना होना और खुश्नुमा वादों के बीच क्या वाकई राजधानी की हवा बेहतर हो चुकी है? सुप्रीम कोर्ट सही कह रहा है कि सरकारों ने प्रदूषण को रोकने के सरकार उपाय क्या किए?
यही नहीं क्या कोरोना महामारी के खौफ के बीच बिना वैक्सीन के बच्चों का नाजुक संसार क्या प्रदूषण और कोविड नाम के दैत्य से सुरक्षित रहेगा?
दरअसल, बीते डेढ़ सालों से कोरोना से लगे तालों में सिमटे स्कूल ठीक से अब भी नहीं खुले हैं. यूरोप से आती कोरोना की तीसरी लहरों की खबरों के बीच बच्चों की वैक्सीन अभी तक नहीं आई और उनके वैक्सीनेशन की तो बात ही दूर की है, ऐसे में कोरोना, डेंगू, स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियों की छाया के बीच प्रदूषण ने भी अपना रंग दिखाया है, तो फिर महामारी का पैकेज लिए बैठी राजधानी में बच्चों को स्कूल खोलने के आसन्न खतरों के प्रति सरकार अलर्ट है?
यकीनन, इस बात में कोई दो राय नहीं कि उजली खिली धूप से भरी सुबह में स्कूल जाते बच्चों की रौनक, काम पर जाते लोग और वाहनों की आवाजाही से गुलजार होती सड़कें सांस लेते जिंदा शहरों की पहचान होती है, बाजारों में खरीदारी की रंगत भी सरकारों के चेहरे को राजस्व की चिंता से दूर खिलाए रखती है, खासकर तब जबकि बीते डेढ़ साल में कोरोना ने शहरों के शहर और कई सुंदर दुनियाओं को तबाह कर दिया है, लेकिन क्या घर में बैठे बच्चों के लिए हमने बाहर सुरक्षा की वह दीवारें खड़ी की हैं जो कोविड की काली छाया से हमारे नौनिहालों को बचाए?
जाहिर है इस पर सरकारों को सोचना चाहिए.
सभी को पता है कि इस बड़ी सी दुनिया में बहुत सी छोटी सी दुनियाएं अब वैसी नहीं हैं जैसी पहले हुआ करती थीं. यह सभ्यता महामारी से गुजरी है और अब भी गुजर रही है और उसका जहर होता असर गया नहीं है.
दूसरी लहर से गुजरकर अब भी हम तीसरी लहर की आशंकाओं के बीच कहीं हैं. परिवर्तन सब जगह हुआ है और सबसे ज्यादा बदलाव आए हैं हमारे बच्चों में.
बच्चों की नन्हीं फुलवारी उजड़ी, उदास और मायूस सी जान पड़ती है. देश के कई हिस्सों में स्कूल खुले हैं. मास्क पहने, डरे सहमे बच्चे अभिभावकों के साथ तो कभी दिनों से रोजी की आस में खड़े ऑटो में बैठकर बच्चे स्कूल जाने लगे हैं, लेकिन डेढ़ साल से ज्यादा समय के बाद स्कूलों के खाली कमरे फोन की उस छोटे से क्लास रूम से अलग जान पड़ रही है. करोड़ों वैक्सीन ले चुके हैं, लेकिन बच्चे नहीं..
क्या शहरों को सामान्य बनाने में जुटी सरकारें स्कूलों को खोलकर दुनिया के हालात पहले जैसे रहे हैं के मुगालते में तो नहीं??
ध्यान रहे कोरोना की दूसरी लहर बताकर नहीं आई थी और बूढ़ों, बुजुर्गों सहित बच्चों के लिए प्रदूषण कितना खतरनाक है इसे आप नजदीकी डॉक्टर से पूछ सकते हैं.