Fri. Nov 22nd, 2024

सरकारी स्कूल के रिजल्ट खराब और प्राइवेट में महंगी फीस, कैसे बदलेगी शिक्षा?

9 years of right to education act 2009 challenges & remedies
Right to Education Act के 9 साल : कितनी बदली भारत में शिक्षा?
राजनीतिक लोग शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की बातें तो अक्सर करते हैं पर कोई गंभीरता नहीं दिख सके हैं.
राजनीतिक लोग शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की बातें तो अक्सर करते हैं पर कोई गंभीरता नहीं दिख सके हैं.

हाल ही में दिल्ली के सरकारी स्कूलों में आयोजित ‘प्री बोर्ड टेस्ट’ के रिजल्ट ने केजरीवाल सरकार को हिला दिया. रिजल्ट था ही ऐसा कि इसमें मात्र 10 प्रतिशत छात्र सफल रहे. दिल्ली में एजुकेशन मिनिस्ट्री संभाल रहे डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने इन परिणामों को बेहद निराशानजक और अपमानजनक बताया और मामले को गंभीरता से लेते हुए इन स्कूलों के शिक्षकों को नोटिस जारी भी जारी किए.

उधर शिक्षकों का कहना है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हजारों पद रिक्त हैं तो दूसरी ओर शिक्षा के वातावरण का अभाव है. अनुशासन कायम रखने की जिम्मेवारी शिक्षकों की है जबकि शिक्षक किसी उदण्ड छात्रा को दण्डित करना तो दूर, उन्हें डांट भी नहीं सकते. बहरहाल, देश में शिक्षा की हालत हिंदी बेल्ट के प्रदेशों बिहार, यूपी मप्र में सभी देख चुके हैं, लेकिन दिल्ली जैसे राज्य में जहां शिक्षा को लेकर बड़े-बड़े दावे किए गए वहां शिक्षा मंत्री द्वारा इसे निराशाजनक बताए जाने पर आप समझ सकते हैं देश में शिक्षा कहां जा रही है.

अनेक मामलों में शिक्षक न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश में छात्रों के दबाव में है. टीचर्स की हत्या जैसे मामले इसकी बानगी है.
शिक्षक न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश में छात्रों के दबाव में है. टीचर्स की हत्या जैसे मामले इसकी बानगी है.

क्या है दिल्ली में एजुकेशन के हालात

अनेक मामलों में शिक्षक न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश में छात्रों के दबाव में है. बीत दिनों दिवस यमुनानगर में एक छात्र ने प्रिंसिपल को गोली मार दी,  तो वेल्लोर के एक स्टूडेंट ने अपने प्रिंसिपल को चाकू घुसेड़ दिया. पिछले साल दिल्ली के एक स्कूल में क्लास में घुसकर स्टूडेंट ने टीचर का मर्डर कर दिया. ऐसे कई उदाहरण हैं जो देश में एजुकेशन की हालत बयां करते हैं. ऐसे वातावरण में किसी शिक्षक को ‘राष्ट्र-निर्माता’ कहा जाना किस तरह उचित है?

अच्छी नहीं है टीचर्स की हालत

दूसरी ओर राजनीति का असर है कि किसी तरह नियुक्ति पा गए कुछ शिक्षक भी ‘क्रांतिकारी’ हैं. मध्य प्रदेश के एक कलेक्टर ने अपने दौरे के पर एक टीचर से स्कूल का नाम ब्लैकबोर्ड पर लिखने को कहा तो उसने ‘गवर्नमेंट मिडिल स्कूल’ का नाम ही गलत लिखा जबकि उसी क्लास के एक बच्चे ने उसे सही लिखा. एक स्कूल की महिला टीचर से ‘मिडिल’ की स्पेलिंग पूछी गई तो उसने हाथ जोड़ लिए.

और भी हैं मामले

केवल मध्य प्रदेश ही क्यों  कुछ समय पहले जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में भी ऐसा ही एक मामला सामने आया. साउथ कश्मीर के एक अध्यापक की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने उसपर ‘अयोग्यता’ का आरोप लगाया तो कोर्ट ने उसे अंग्रेजी से उर्दू और उर्दू से अंग्रेजी में ट्रांसलेशन के लिए एक सरल सी लाइन दी जिसका वह ट्रांसलेशन नहीं कर सका. और तो और  वह अध्यापक बेहद आसान सी एग्जाम में पास नहीं हो सका जबकि उसे ‘गाय’ पर निबंध भर लिखना था.

सामने आए नकल के मामले

इसी तरह बीते साल यूपी में सामूहिक नकल तस्वीरों ने ने सभी को शर्मसार किया. हालांकि नई सरकार नकल पर सख्ती से रोक लगाने के प्रयास किए हैं, लेकिन इसके पॉजिटिव रिजल्ट तभी सामने आयेंगे जब ऐेसे प्रयासों को पॉलिटिक्स से दूर रखा जाए क्योंकि अतीत में यूपी उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार ने शिक्षा के स्तर में सुधार के प्रयास किए तो विपक्षी दलों ने इसे राजनीतिक मुद्दा बना दिया और सरकार में आने पर उस कानून को बदलने का का वादा किया.

केवल अपना नाम लिखना -पढ़ना ही साक्षरता का मापदंड है तो शिक्षा के स्तर पर चर्चा बेमानी है.
केवल अपना नाम लिखना -पढ़ना ही साक्षरता का मापदंड है तो शिक्षा के स्तर पर चर्चा बेमानी है. 

ऐसी शिक्षा से कहां जाएगा देश?

सरकारी से अधिक प्राइवेट यूनिवर्सिटी की बाढ़ सी आई है. हर साल लाखों डॉक्टर, इंजीनियर तैयार होते हैं. लॉ और एमबीए करने वालों की संख्या भी लाखों में होती है, लेकिन गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले करोड़ों लोगों के बच्चों का शिक्षा के स्तर क्या है,  इस पर चुप्पी क्यों?  क्या शिक्षा व उनका जीवन स्तर सुधारे बिना भारत का विकास संभव है? देश की एक भी यूनिविसिर्टी वर्ल्ड रैंकिंग में बेहतर नहीं है. क्या राजनीति की घुसपैठ इसके लिए जिम्मेवार है? युवा छात्रों को राष्ट्रद्रोही नारों में उलझकर शिक्षा के स्तर को किस प्रकार ऊंचा उठा सकते हैं, इस पर भी गैर राजनीतिक और ईमानदार शोध की आवश्यकता है. शिक्षा के ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन किए बिना विश्वगुरु तो बहुत दूर की बात है, न तो शिक्षा का स्तर सुधर सकता है और न ही ‘डिजिटल इण्डिया’ और ‘स्किल्ड इण्डिया’ सफल हो सकते हैं.

विकराल हैं शिक्षा की समस्याएं

देश में जनगणना से अधिक जोर जातिगणना के आंकड़ों पर है. महज साक्षर होना ही शिक्षित होना मान लिया गया है. 1911 में गोपाल कृष्ण गोखले ने फ्री और अनिवार्य शिक्षा का बिल पेश किया था तो ग्यारह हजार बड़े जमींदारों के हस्ताक्षरों वाली याचिका में कहा गया था कि ‘अगर गरीबों के बच्चे स्कूल जाएंगे तो जमींदारों के खेतों में काम कौन करेगा.’

सरकारी स्कूलों की हालत देखकर पता चलता है कि हमारी शिक्षा किस दिशा में जा रही है.
सरकारी स्कूलों की हालत देखकर पता चलता है कि हमारी शिक्षा किस दिशा में जा रही है.

अपडेट लेकिन अप टू डेट नहीं?

बेशक एजुकेशन इंस्टीट्यूशन की संख्या बढ़ी है, लेकिन इंफॉरमेंशन टेक्नॉलॉजी के इस दौर में आज भी देश के एक चौथाई स्कूलों में भी एजुकेशन देने वाले मॉर्डन और एडवॉंस रिसोर्से तो दूर की बात उनका नाम तक नहीं जानने वाले लोग मौजूद है. कहीं कम्प्यूटर है भी तो ताले में बंद हैं. हजारों पोस्ट खाली हैं. ऐसे में गुणवत्ता की चिंता करे भी तो कौन? शिक्षा के स्तर पर चर्चा अधूरी और निरर्थक रहेगी यदि हम देश के शिक्षकों की दशा और दिशा को अनदेखा करें.

क्या किया जाना चाहिए?

ध्यान रखिए नई डॉक्टर, इंजीनियर, सीए, आईएएस, आईपीएस, जज, मैजिस्ट्रेट तो बनना चाहती है लेकिन शिक्षक नहीं बनना चाहती. ‘कहीं नहीं तो यहीं सही’ की मजबूरी से कोई शिक्षक बनता है तो स्पष्ट है कि न तो समाज और सरकारें शिक्षक के प्रति कहीं न्याय कर पा रही है और न ही ऐसे शिक्षक भी अपनी भूमिका के साथ न्याय कर सकते हैं. 

इस साल के बजट में शिक्षा के ढांचे में सुधार पर बल दिया गया है. जल्द ही शिक्षा का नया सत्र आरंभ होने जा रहा है. इसलिए आवश्यकता है नीति आयोग की तरह शिक्षा आयोग बनाकर यह कार्य राजनीति की बजाय योग्य शिक्षाविदों और समाजशास्त्रियों को सौंपा जाए. यदि नीति निर्माण के कार्य से राजनेता दूर रहे, तभी शिक्षा और ज्ञान को केवल नौकरी पाने का माध्यम बनाने की बजाय चरित्र निर्माण का माध्यम बना सकेंगे. 

यह भी पढ़ें

महिला साक्षरता में छिपी है देश के विकास की कहानी, लेकिन क्यों पुरुषों की तुलना में निरक्षर रह गई स्त्री?

होमवर्क का कहा तो बेटे ने मां और बहन के पेट में घोंप दी कैंची, आखिर कहां जा रहा है समाज?

(इस लेख के विचार पूर्णत: निजी हैं. India-reviews.com इसमें उल्लेखित बातों का न तो समर्थन करता है और न ही इसके पक्ष या विपक्ष में अपनी सहमति जाहिर करता है. यहां प्रकाशित होने वाले लेख और प्रकाशित व प्रसारित अन्य सामग्री से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. आप भी अपने विचार या प्रतिक्रिया हमें editorindiareviews@gmail.com पर भेज सकते हैं.)

By डॉ. विनोद बब्बर

वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार.

Related Post

One thought on “सरकारी स्कूल के रिजल्ट खराब और प्राइवेट में महंगी फीस, कैसे बदलेगी शिक्षा?”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *