पिछले दिनों देश की बैंकिंग प्रणाली में साइबर सेंधमारी होने के बाद अब साइबर सुरक्षा का का सबसे महत्वपूर्ण सवाल हम सब के सामने है. देश के महत्वपूर्ण सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के बत्तीस लाख ग्राहकों के एटीएम कार्ड की क्लोनिंग से करोड़ों रुपये की धोखाधड़ी का मामला बेहद गंभीर है. इंटरनेट और स्मार्ट गैजेट्स ने हमारी जिंदगी को जितना आसान बनाया है उतने ही इनके खतरे भी हैं.
हाल में ही संचार उपकरणों के हैक हो जाने और सूचनाओं के लीक होने की किसी भी संभावना से बचने के लिए केंद्रीय मंत्रियों से कहा गया है कि मंत्रिमंडल की बैठकों में वे अपने मोबाइल फोन नहीं लाएं. मंत्रिमंडलीय सचिव ने हाल ही में इस संबंध में सभी संबंधित मंत्रियों के निजी सचिवों को निर्देश जारी किया है. सरकार द्वारा इस तरह का निर्देश पहली बार जारी किया गया है. अब तक मंत्रियों को बैठकों में मोबाइल फोन ले जाने की अनुमति थी. बैठक के दौरान इन्हें या तो स्विच ऑफ कर दिया जाता था या फिर ‘साइलंट मोड’ में कर दिया जाता था. लेकिन साइबर सेंधमारी के इस दौर में सरकार के इस निर्णय से किसी को आश्चर्य नही होना चाहिए .
यह सामान्य बात नहीं कि सरकारी बैंक के 32 लाख से अधिक लोगों के एटीएम कार्ड का ब्यौरा चोरी हो जाए और फिर भी बैंक खतरे की घंटी बजाने में देर करें. वे तब सक्रिय हुए जब कुछ लोगों के खातों से पैसा निकल गया. साइबर सेंधमारी से प्रभावित हुए बैंक भले ही यह दिलासा दे रहे हों कि घबराने की जरूरत नहीं, लेकिन यह चिंताजनक है कि अभी तक इस बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं कि यह सेंधमारी कैसे हुई और किसने की? अंदेशा है कि यह काम पाकिस्तानी और चीनी हैकरों ने किया.
दरअसल, जितनी जरूरत हैकरों के बारे में पता लगाने की है उतनी ही ऐसी व्यवस्था बनाने की भी कि भविष्य में ऐसा न हो, इसलिए और भी क्योंकि बैंकिंग-वित्तीय संस्थानों में साइबर सुरक्षा में सेंधमारी का यह पहला मामला नहीं. इसके पहले अन्य संस्थानों में भी साइबर सेंधमारी हो चुकी है. इसी तरह हैकिंग के जरिये रक्षा-सुरक्षा से संबंधित गोपनीय जानकारी हासिल करने की भी कोशिश हो चुकी है. देश के सरकारी रक्षा, विज्ञान और शोध संस्थान और राजनयिक दूतावास पर साइबर जासूसी का आतंक मंडरा रहा है.
दुनिया के सबसे बड़े साइबर जासूसी रैकेट के खतरे से जूझ रहे इन संस्थानों को बेहद संवेदनशील जानकारियों और आंकड़ों की चोरी होने का डर है. जैसे-जैसे इंटरनेट पर निर्भरता बढ़ रही है वैसे-वैसे साइबर सुरक्षा के समक्ष खतरे भी बढ़ते जा रहे हैं. ये खतरे सारी दुनिया में बढ़ रहे हैं और इसका एक बड़ा कारण यह है कि साइबर सेंधमारी करने वाले तत्वों की पहचान भी मुश्किल है और उन तक पहुंच भी. इंटरनेट वायरस अथवा हैकिंग के जरिये सेंधमारी वह अपराध है, जिसमें आमतौर पर अपराधी घटनास्थल से दूर होता है. कई बार तो वह किसी दूसरे देश में होता है और ज्यादातर मामलों में उसकी पहचान छिपी ही रहती है.
यकीनन यह ठीक है कि भारत में साइबर सुरक्षा के प्रति सजगता बढ़ी है, लेकिन उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता. साइबर सुरक्षा को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए जैसे तंत्र का निर्माण अब तक हो जाना चाहिए था वह नहीं हो सका है. यह सही है कि साइबर सुरक्षा को मजबूत करने के लिए कई संस्थाएं बनाई गई हैं, लेकिन उनके बीच अपेक्षित तालमेल का अभाव अभी भी दिखता है.
अपने देश की सुरक्षा के लिए खुफिया एजेंसियां अक्सर दूसरे देशों की जासूसी करती हैं. लेकिन अब न सिर्फ जासूसी का तरीका बदल रहा है, बल्कि उसका दायरा भी बढ़ गया है. साइबर स्पाइंग से सिर्फ सुरक्षा नहीं, बल्कि व्यापार संबंधी गोपनीय जानकारियां भी चुराई जा रही है. जब ऐसे दावे सामने आए कि अमेरिका अपने यूरोपीय दोस्तों और भारत की भी जासूसी कर रहा है तो चिंताएं और बढ़ गईं है. देश में साइबर सुरक्षा में मैनपावर की बहुत कमी है. साइबर सुरक्षा के आकंड़ों के अनुसार चीन में साइबर सुरक्षा के काम में सवा लाख विशेषज्ञ तैनात हैं. अमेरिका में यह संख्या 91 हजार से ऊपर है, जबकि अपने यहां यह संख्या काफी कम है. देश में साइबर सुरक्षा को लेकर सजगता तो बढ़ी है, लेकिन अभी भी वो पर्याप्त नहीं है. फिलहाल स्थिति बहुत ज्यादा चिंताजनक है जिस पर तत्काल एक्शन की जरूरत है .
कुछ देशों द्वारा की जा रही सबसे बड़ी साइबर जासूसी एक अहम मुद्दा है. यह सीधे-सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मामला है इसलिए इस पर अब सरकार को गंभीर होकर काम करना चाहिए. भारत सहित कई एशियाई देशों का सारा कामकाज गूगल, याहू जैसी वेबसाइट्स के जरिए होता है, इसलिए यहां की सरकारें संकट में घिर गईं हैं. भारत चाहता है कि याहू, गूगल जैसी अमेरिकी कंपनियां भारत के साथ अहम जानकारियों को साझा करे. भारत में फोन और इंटरनेट की केंद्रीय मॉनिटरिंग की प्रणाली हाल में ही शुरू हुई है. सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति से मंजूरी के जरिए खुफिया एजेंसियों को फोन टैपिंग, ई-मेल स्नूपिंग, वेब सर्च और सोशल नेटवर्क पर सीधी नजर रखने के अधिकार मिले हैं. लेकिन गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट आदि को नई मॉनिटरिंग प्रणाली नीति के तहत लाना और उनके सर्वर में दखल देना भारतीय एजेंसियों के लिए काफी मुश्किल हो रहा है. ये कंपनियां अपने सर्वर देश से बाहर होने और विदेशी कानूनों के तहत संचालन का तर्क देती हैं.
अमेरिका सहित कई विकसित देश भी साइबर हैकिंग जैसे मामलों में संलिप्त है. अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने साइबर दुनिया में जासूसी का काम बहुत पहले ही शुरू कर दिया था. ब्रिटिश समाचार पत्र गार्जियन और अमेरिकी समाचार पत्र वाशिंगटन पोस्ट ने स्नोडेन से प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर अति गोपनीय प्रिज्म के बाबत खुलासे ने साफ कर दिया था कि साइबर दुनिया की नौ बड़ी कंपनियां बाकायदा जांच एजेंसियों की साझेदार हैं. इस सनसनीखेज खुलासे को सार्वजनिक किया गया था. दुनिया में इंटरनेट प्रणाली पर काफी हद तक अभी भी अमेरिकी नियंत्रण है और अधिकांश बड़ी इंटरनेट कंपनियां अमेरिकी हैं. सभी के सर्वर वहीं है और वे वहां के कानूनों से संचालित होती हैं,इसलिए सबसे बड़ा सवाल भारत सहित दूसरे देशों से है कि वे साइबर दुनिया में अपनी निजता को कैसे बचाते हैं. ये सवाल निजता ,साइबर सुरक्षा के साथ साथ राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है.
कुलमिलाकर बात चाहे कुछ भी हो लेकिन देश की बैंकिंग प्रणाली में साइबर सेंधमारी भारत की सुरक्षा से जुड़ा बेहद गंभीर और संवेदनशील मामला है. इस पर केंद्र सरकार को तत्काल एक्शन लेते हुए जांच के निष्कर्ष तक पहुंचना होगा और जिन वजहों से यह सूचनाएं लीक हुई है उनपर एक सबक लेते हुए तत्काल कार्यवाही करना होगा.
(लेखक शशांक द्विवेदी चितौड़गढ, राजस्थाइन में मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डिप्टी डायरेक्टर है और टेक्निकल टूडे पत्रिका के संपादक हैं. 12 सालों से विज्ञान विषय पर लिखते हुए विज्ञान और तकनीक पर केन्द्रित विज्ञानपीडिया डॉट कॉम के संचालक है. एबीपी न्यूज द्वारा विज्ञान लेखन के लिए सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर का सम्मान हासिल कर चुके शशांक को विज्ञान संचार से जुड़ी देश की कई संस्थाओं ने भी राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया है. वे देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लगातार लिख रहे हैं.)