दिमाग़ भन्ना-सा गया है… ग़ुस्सा भी आ रहा है…! उन लोगों की वजह से जो कंगना और ऋतिक के ‘नितांत निजी’ मामले में लाठी-बल्लम लेकर कूद पड़े हैं. ऐसे लोगों पर कटोरा भर-भरके तरस भी आ रहा है. इतने ख़ाली हैं लोग कि किसी के निजी पचड़े में उंगली करने से भी परहेज़ नहीं कर रहे? ऐसा भी नहीं कि सिर्फ़ चर्चा हो रही है; लोगों ने तो पाले भी तय कर लिए हैं और पक्ष-विपक्ष में खड़े हो गए हैं. वो चित्रगुप्त हो गए हैं और इन दोनों के कर्म-आचरण की पोथियां खोलकर बैठे हैं. फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे मंच भरे पड़े हैं इस हिसाब-किताब से कि कौन सही है और कौन ग़लत.
यक़ीनन हम उसी के साथ खड़े होते हैं जो सही है. लेकिन सवाल यह कि हम कैसे जानते हैं इन दोनों में से कौन सही है और कितना सही है? न… न…! हम जानते कुछ भी नहीं हैं, हम केवल मानते हैं…और वो भी उन सूचनाओं के आधार पर जो हम तक पहुंचाई जाती हैं. हमारे अवचेतन में एक गरारी-सी घूमना शुरू होती है, ‘अमृत-मंथन’ होता है, और फिर हम कूदकर किसी एक पाले में जा खड़े होते हैं. दूसरे पाले में जाकर खड़े होने वालों से तर्क-वितर्क की कबड्डी-कबड्डी खेलने के लिए.
कंगना और ऋतिक जैसे लोग सितारे हैं; इनके काम-काज के बारे में रोज़ छपता है. दिन में कई-कई बार टीवी न्यूज़ चैनल भी ख़बरें प्रसारित करते हैं. टीवी चैनल बेशक उत्तराखंड और हिमाचल के जंगलों में लगी आग की फ़ुटेज न दिखाएं, लेकिन ऐसा कुछ जरूर बताते हैं कि फ़लां सितारे ने ट्वीट में क्या लिखा, या फिर कौन सितारा कहां किसके साथ देखा गया; अख़बारों में भी एक पन्ना ऐसी ‘ज़रूरी’ एवं ‘हमारे जीवन की दिशा निर्धारित करने वाली’ सूचनाओं के लिए सुरक्षित रहता है. इन सितारों के फ़िल्मी मामलों और रोज़मर्रा की गतिविधियों पर ख़बर देने के लिए मुंबई में छोटे-बड़े सैकड़ों सिने पत्रकार अड्डा जमाए बैठे हैं, जो देश की ‘जागरूक’ जनता तक, या कहें कि जनता को ‘समृद्ध’ करने के लिए इन सितारों की सूचनाएं पहुंचाते हैं. मगर ये सूचनाएं वही होती हैं जिन्हें या जिस तरह से इन सितारों के जनसंपर्क एजेंट हम तक पहुंचाना चाहते हैं. रही-सही कसर हम बुद्धिजीवी विचारक पूरा कर देते हैं.
यक़ीनन ये सितारे पब्लिक फ़िगर हैं. लेकिन पब्लिक प्रॉपर्टी तो नहीं हैं.इनकी निजी ज़िंदगी है; अपने कुछ राज़ हैं, जीने के अपने तौर-तरीक़े हैं. इनके दिमाग़ में क्या चलता है, एक इन्सान होने के नाते ये किस मामले में क्या सोचते हैं, इनका भावनात्मक स्तर क्या है, और किसी दूसरे कलाकार या व्यक्ति को लेकर इनके मन में क्या विचार हैं. इसका पता तो मुंबई में बैठे वो पत्रकार भी नहीं जानते जो ज़रा-सा इशारा मिलते ही इनकी बाइट लेने दौड़े आते हैं और शायद उस वक़्त उनसे ज़्यादा इन सितारों के निकट कोई दूसरा होता भी नहीं. तो भइया, ऐसे में दूर-दराज़ बैठे लोग कैसे जान लेते हैं कि किसने किसको क्या कहा और जिसने जो कहा उसमें कितनी सच्चाई है और कितना स्वार्थ?
असल में हम भारतीयों के साथ एक मुश्किल है; हम अपने बारे में कम और दूसरों के बारे में ज़्यादा सोचते हैं. जहां ज़रा-सा कुछ फटा मिला, हम टांग घुसेड़ देते हैं; और अगर कहीं थोड़ी ज़्यादा जगह दिख जाए तो धप्प्प् करके कूदने से भी गुरेज़ नहीं करते. हमें मज़ा आता है ऐसा करने में. और जब मामला नामचीन शख़्सियतों का हो तो फिर अल्लाह ही मालिक. किसी एक सितारे के पक्ष में खड़े होकर हमारा अवचेतन हमें उसके क़रीब होने का भ्रम देता है. बेहद सुखद अहसास है यह. मगर एक तरह का दिमाग़ी ख़लल भी है. नाम है ‘सेलेब्रिटी वरशिप सिंड्रोम’. थोड़ा और गहराई में जाएं तो इस सिंड्रोम के ‘एंटरटेनमेंट-सोशल’ और ‘इन्टेस-पर्सनल’ श्रेणियों के बीच का मामला है यह, जिसमें हम मानने लगते हैं कि किसी सेलेब्रिटी का हमसे बड़ा हितैषी दूसरा कोई नहीं है और जब तक हम उसके समर्थन में आगे नहीं आएंगे उसकी गति नहीं होने वाली.
वैसे, जब मामले में दोनों पक्ष विरोधी लिंग के हों तो कुछ लोगों का एक अलग तरह का एंटीना भी तन जाता है, जो झटपट ये तरंगें पकड़ता है कि इस मामले में ख़ुद को नारीवादी या नारी-समर्थक के तौर पर पेश करने की अच्छी-ख़ासी गुंजायश है. बस, वो तुरंत सक्रिय हो जाते हैं. ऐसे लोग यही मानकर चलते हैं कि पुरुष पक्ष के हाथों स्त्री पक्ष ही प्रताड़ित हुआ होगा. क्यों भई? इसलिए कि आपको अभी तक इस विचार से निजात नहीं मिल पाई है कि औरत एक कमज़ोर प्राणी है? यह कैसा नारी-समर्थन? जबकि एक तरफ आप इस बात के झंडाबरदार हैं कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है, ये दोनों बराबर हैं, और बल्कि स्त्री की आंतरिक शक्ति के आगे पुरुष कहीं नहीं ठहरता!
कंगना और ऋतिक के मामले में भी यही हुआ है. देशभर में लोगों ने अपनी-अपनी समझ तथा परोसी गई जानकारियों के आधार पर राय बना ली और अपना पाला भी तय कर लिया. जो वाकई इन सितारों में से किसी एक के भी क़रीबी हैं या इन्हें थोड़ा-बहुत जानते हैं, उन्होंने अपने मतलब तथा ज़रूरत के हिसाब से पक्ष तय कर लिया. हालांकि, कंगना के पक्ष में खड़े होने वालों में एक जमात उन नारीवादियों की भी है, जो उनकी अब तक की संघर्ष-यात्रा का हवाला देकर अपना पक्ष निर्धारित कर रहे हैं. संभव है इस मामले में कंगना ही सही हों, लेकिन आप यह बात ख़म ठोंककर कैसे कह सकते हैं??
एक कलाकार के तौर पर कंगना मुझे भी बेहद पसंद हैं; बॉलीवुड क्वीन होने तक के सफ़र में उनकी जद्दोजहद मुझे भी कमोबेश प्रेरित करती है. लेकिन क्या इस वजह से मुझे उनके निजी मामलों में दख़ल देने, राय प्रकट करने या बिन कहे स्वयं को उनके हक़ में दिखाने का अधिकार मिल जाता है? बेशक मैं उनसे दो-एक बार मिला हूं, लेकिन उन्हें एक व्यक्ति के तौर पर मैं कतई नहीं जानता या समझता (और न मुझे ऐसा करने की ज़रूरत महसूस होती है). फिर मैं उनके व्यक्तिगत मामलों पर टिप्पणी किस मुंह से करूं! एक सिने पत्रकार होने के नाते मुझे केवल ऋतिक या कंगना के काम पर बात करने का अधिकार है; एक फ़िल्म समीक्षक होने के नाते मुझे इनकी फ़िल्मों का पोस्टमार्टम करना है. लेकिन इनकी ज़िंदगी में दख़ल देने या टिप्पणियां करने की आज़ादी मुझे कतई नहीं है.
मैं एक नारी के भीतर छुपी अदम्य शक्ति को भी स्वीकार करता हूं, उसे नमन करता हूं. लेकिन ऐसे में मुझे यक़ीन होना चाहिए न, कि कंगना जो पारिवारिक विरोध के बावजूद अनजान राह पर चलने की हिम्मत रखती हैं और बॉलीवुड में एक ‘बाहरी’ के बावजूद अपना मुक़ाम तय करती हैं, वो अपने दम पर निजी मामले भी आसानी-से सुलझा सकती हैं. क्या यह दोग़लापन नहीं है कि एक तरफ़ हम उनकी हिम्मत की शान में क़सीदे पढ़ें, और दूसरी तरफ़ उन्हें ‘कमज़ोर’ मानते हुए उन्हें बिना मांगे सहारा देने की पेशकश करें, उनकी निजता का सम्मान न करें. जब आप स्वयं ऐसी किसी स्थिति में हों, तो क्या पड़ोसियों या नातेदारों से अपेक्षा रखेंगे कि वे बिन बुलाए या तो आपके पक्ष में आ जाएं, या फिर आपके विरोध में खड़े हो जाएं? शायद नहीं. तो फिर कंगना और ऋतिक के मामले में आप कितना सही हैं और कितना ग़लत, यह ख़ुद तय करें. और केवल यही तय करें, कंगना और ऋतिक को छोड़ दें.