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इसलिए अब भी सूखी नहीं हैं भारत में वामपंथ की जड़ें 

Himachal pradesh Assembly Elections 2017 Left Parties and BJP congress. Image Source: CPIM.org
Himachal pradesh Assembly Elections 2017 Left Parties and BJP congress. Image Source: CPIM.org
communist parties and India. Image Source: cpim.org
communist parties and India. Image Source: cpim.org

बीते संसदीय आम चुनाव में जब वामपंथी दलों का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा तो इस चर्चा को बल मिलने लगा कि अब भारत में वामपंथ के दिन लद चुके हैं. क्या यह सत्य है? 

मसलन सवाल का जवाब सीधे तौर पर दे पाना कठिन होगा, लेकिन सरसरी निगाहों में फौरी तोर पर वर्तमान के दिन वाम दलों के लिए कठिन तो जरूर है. इस दौर को वामपंथी चिंतक और कार्यकत्र्ता कठिन दौर के रूप में प्रचारित भी कर रहे हैं. वामपंथी चिंतक वर्तमान समय को मजदूर और किसानों के हितों के खिलाफ भी बता रहे हैं. पता नहीं इसमें कितनी सत्यता है, लेकिन कहीं कोई संदेह नहीं है कि जब से देश में वामपंथी ताकतें कमजोर हुई है तब से मजदूर एवं किसानों के हितों की अवहेलना साफ दिखने लगी है.  

आखिर वामपंथी इतने कमजोर हुए क्यों? यह सवाल यदि वामपंथियों से पूछो तो वे बड़े-बड़े सिद्धांतों के साथ बहस पर उतारू हो जाते हैं, लेकिन भारत में वामपंथी आन्दोलन को कमजोर होने के मुद्दे पर मेरी राय थोड़ी अलग किस्म की है. मैं इन दिनों एक किताब पढ़ रहा हूं. उस किताब में लेखक ने साफ तौर पर लिखा है कि भारत के वामपंथी भारतीय चश्में से कभी भारत को देखा ही नहीं, या तो वे अंग्रेजी चश्मे से भारत को देखते रहें या फिर रसियन चश्मा लगाकर भारत को देखा. यदि भारत को भारतीय चश्मे से देखा गया होता तो भारत में वामपंथी आन्दोलन की यह दुर्गति नहीं होती. इसी बीच चार राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद कुछ वामपंथी मित्रों के साथ मेरी मुलाकात हुई और चर्चा जब निकली तो भारत में वामपंथ के मर्सिया पर जाकर खत्म हुई. गोया बात तो सही है, लेकिन बात क्या सही है, फिर वही सवाल सामने खड़ा हो जाता है.  

वामपंथियों के द्वारा ही पता चला कि पंजाब में इस बार संयुक्त वामपंथी गठबंधन को लगभग 81 हजार वोट मिले. संयुक्त वाम गठबंधन में तीन पार्टियां शामिल थीं. इसके अलावे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी-लेनिनवादी ने अलग से आठ सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे. इन्हें भी 98 सौ के करीब वोट मिले. कुछ उदारवादी और चरमपंथी वामपंथियों ने भी अलग से चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े किए, उन्हें भी पांच हजार के करीब वोट मिले.

कुल-मिलाकर वामपंथियों के वोट को एक कर दिया जाए तो एक लाख के करीब वोट मिले. यह वोट देखने में कम लगता है, लेकिन मैं इसे कम नहीं मानता. वामपंथियों को यदि इतने मत मिले हैं तो इसका मतलब यह है कि इसमें से ज्यादातर विचारधारा से प्रभावित होकर उन्हें मत मिला होगा. यकीनन इसमें से ज्यादातर काडर वोट नहीं होगा, लेकिन फायदा झटकने वाले इस दौर में वामपंथियों को वोट डालकर अपना वोट कोई खराब क्यों करेगा? इसलिए इस वोट को कमीटेड वोट तो कहा जी जाना चाहिए. ये वोट पंजाब जैसे प्रदेश में वामपंथ की ताकत में चमत्कारी परिवर्तन ला सकता है. इस बात को गंभीरता से समझने की जरूरत है.  

कुछ दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि आजकल शाखा लगती कहां है और लगती भी है तो संख्या नहीं आती है, लेकिन मैं उनसे सहमत नहीं था. ऐसे ही मेरा मानना है कि वामपंथी ताकत अभी भी कम नहीं हुई है. पंजाब ही नहीं पूरे देशभर में वामपंथी काडरों की संख्या अच्छी खासी है. यदि संयुक्त मोर्चा या गठबंधन बनाकर सभी वामपंथी एकत्रित हो जाएं तो वे भाजपा और संघ परिवार के खिलाफ एक अच्छे विकल्प के रूप में खड़े हो सकते हैं, लेकिन वामपंथ की कमजोरी का करण उनके अंदर आपसी फूट है. हर एक वामपंथी संगठन एक-दूसरे को समझौतावादी घोषित किए हुए है. यह वैचारिक संघर्ष हत्या और हिंसा में परिवर्तित होता रहता है. बिहार में साफ समझ आता है कि संघियों या कांग्रेसियों ने जितना वामपंथ को घाटा नहीं पहुंचाया उससे कहीं ज्यादा माओवादियों ने घाटा पहुंचाया. रहा सहा लालू और नीतीश कुमार ने पूरा कर दिया. इस प्रकार यदि वामपंथ के लिए यह कहा जाए कि ‘‘घर को आग लगी घर के चिराग से‘‘ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. 

संपूर्णता में देखें तो जितने काडर संघ के पास हैं उससे थोड़े ही कम काडर वामपंथियों के पास होंगे, लेकिन संघी संगठित हैं और अपने विचार के प्रति प्रतिबद्ध भी, लेकिन वामपंथी बंटे हुए हैं. कुछ वामपंथी पार्टियों पर तो साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ बिक जाने तक का आरोप लग चुका है. भारत के एक वामपंथी दल के महासचिव पर तो कोकाकोला के वेतन पर पलने का आरोप लग चुका है. हालांकि संभव है कि यह पूंजीवादी प्रचार तंत्र का प्रचार भी हो, लेकिन जब वामपंथी कार्यकर्ताओं को वामपंथी गुरिल्लाओं द्वारा हत्या होते सुनता हूं तो वामपंथी संगठनों में साम्राज्यवादी ताकत की दखलअंदाजी पर स्वाभाविक रूप से विश्वास होने लगता है. ऐसी परिस्थिति में वामपंथ को बचा पाना कठिन ही दिखाई देता है.

खैर वामपंथ पर मर्सिया गाने वालों को संगठन की ताकत को संगठित करने की जरूरत है. यदि वे इसमें सफल रहे तो भारत में वामपंथी आन्दोलन को फिर से जीवित किया जा सकता है. लेकिन उसके लिए उन्हें भारतीय समाज को देखने का नजरिया बदलना होगा. थोड़ा चश्मा भी बदलना पड़ सकता है.  

By गौतम चौधरी

वरिष्ठ पत्रकार

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