बॉलीवुड दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्म बनाने वाली इंडस्ट्री में से एक है. यहां हर साल 2 हजार से ज्यादा फिल्में बनती हैं. खास बात यह है कि राइटिंग, स्क्रिप्ट राइटिंग और डायरेक्शन में महिलाएं अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा रही हैं. यह दिलचस्प तथ्य है कि परदे के पीछे महिलाओं की भूमिका उतनी ही पुरानी है जितना की सिनेमा का इतिहास है.
हिंदी सिनेमा में महिला फिल्मकारों का इतिहास
दादा साहेब फाल्के के समकालीन अर्देशिर ईरानी ने 1920 में फिल्म निर्माण की शुरुआत की थी. उनकी ही एक साइलेंट फिल्म ‘ वीर अभिमन्यु ‘ से नायिका के करियर की शुरुआत करने वाली ‘ फातिमा बेगम’ ने 1926 में अपनी फिल्म कंपनी ‘ फातिमा फिल्म्स’ स्थापित कर दी थी, जिसे बाद में विक्टोरिया फातिमा फिल्म्स में बदल दिया गया.
इस बैनर के तले उन्होंने अपनी पहली फिल्म ‘ बुलबुल -ए -पाकिस्तान ( 1928 ) बनाई.
वे पहली निर्देशक थी जिन्होंने अपनी फिल्मों में कल्पना और ट्रिक फोटोग्राफी का उपयोग किया था. फातिमा बेगम के बाद तकरीबन पचास वर्षों तक इस क्षेत्र में गिनीचुनी महिलाओ ने ही कदम रखे.
गुजरे जमाने की तारिका साधना ने अपने करियर की शाम ‘ गीता मेरा नाम (1974 ) निर्देशित की थी.
नर्गिस से लेकर फराह खान तक
हालांकि नरगिस ने राजकपूर के साथ सोलह फिल्में की थीं और आर के फिल्म्स के प्रोडक्शन का सारा काम उन्हीं की निगरानी में होता था परन्तु घोषित रूप से वे कभी निर्देशक की कुर्सी पर नहीं बैठी.
80 के दशक तक महिला निर्देशकों में जो नाम अपनी पहचान बना चुके थे उनमे उल्लेखनीय थी सई परांजपे और अपर्णा सेन.
रेडियो एनाउंसर से अपना करियर आरंभ करने वाली सई ने अपनी निर्देशित पहली फिल्म ‘ स्पर्श ‘(1980) से नेशनल अवॉर्ड हासिल कर लिया था. उनकी निर्देशित अन्य फिल्में ‘ चश्मेबद्दूर (1981) कथा (1982) कालजयी श्रेणी में शामिल हो चुकी है.
अपर्णा सेन ने अपनी निर्देशकीय पारी लगभग सई परांजपे के साथ ही आरंभ की थी. शशिकपूर की ‘ 36 चोरंगी लेन (1981) के लिए उन्हें ‘ बेस्ट डाइरेक्टर नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया.
अपर्णा सेन ने लगभग एक दर्जन से ज्यादा हिंदी और बंगाली फिल्मे निर्देशित की है. उन्हें उनका दूसरा नेशनल अवार्ड ‘ मि एंड मिसेज अय्यर (2002 ) के लिए मिला था.
90 के दशक के बाद महिला फिल्मकार
नब्बे और शताब्दी के दशक के आते आते प्रतिभाशाली महिला फिल्मकारों का सूखा हरियाली में बदल चुका था. न सिर्फ निर्देशन बल्कि कहानी और पटकथा लेखन में भी वे अपनी धाक जमा रही थीं.
कल्पना लाजमी ( रुदाली, दरमिया, दमन) दीपा मेहता (फायर, अर्थ, वाटर) मीरा नायर (मिसिसिपी मसाला, नेमसेक, मॉनसून वेडिंग , सलाम बॉम्बे) गुरिंदर चड्ढा (बेंड इट लाइक बेकहम,ब्राइड एंड प्रेजुड़ाइस, वाइसराय हाउस)
फराह खान (मैं हूं ना , ओम शांति ओम,तीस मार खां , हैप्पी न्यू ईयर) तनूजा चंद्रा ( दुश्मन, संघर्ष ) किरण राव (असिस्टेंट डाइरेक्टर -लगान , स्वदेस , डाइरेक्टर -धोबी घाट)
इसी तरह रीमा कागती (हनीमून ट्रेवल्स, गोल्ड, असिस्टेंट डायरेक्टर लक्ष्य, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, दिल चाहता है) अनुषा रिजवी (पीपली लाइव) मेघना गुलजार (फिलहाल, जस्ट मैरिड, दस कहानियां, तलवार, राजी) जोया अख्तर (लक बाई चांस, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा) गौरी शिंदे ( इंग्लिश-विंग्लिश , डिअर जिंदगी) लीना यादव (शब्द , तीन पत्ती , पार्चड ), अलंकृता श्रीवास्तव (टर्निंग 30 , लिपस्टिक अंडर बुरका ) , नंदिता दास ( फिराक, मंटो ) आदि.
क्षेत्रीय सिनेमा में भी चमकीं भारतीय महिला फिल्मकार
अगर इसमें क्षेत्रीय भाषा की फिल्मकारों को जोड़ दिया जाए तो यह फेहरिस्त और लंबी जा सकती है. यहां हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘ मनमर्जियां ‘ के एक प्रसंग का जिक्र करना जरूरी है. इस फिल्म की कहानी कनिका ढिल्लों ने लिखी है.
निर्माता आनंद एल राय चाहते थे कि फिल्म को कनिका ही डायरेक्ट करे क्योंकि वे फिल्म की क्रिएटिव डायरेक्टर भी थी. परन्तु अभिषेक बच्चन अपनी कमबैक फिल्म में किसी नए डायरेक्टर की जोखिम नहीं उठाना चाहते थे. उन्हें अनुराग कश्यप पर ज्यादा भरोसा था, चुनांचे फिल्म इंडस्ट्री को एक बढ़िया स्टोरी राइटर तो मिला परन्तु एक बढ़िया महिला डायरेक्टर से वंचित होना पड़ा.
मशहूर महिला निर्देशकों की चर्चित फिल्में
दीपा मेहता : फायर (1996), 1947 द अर्थ (1998) व वाटर (2005)
कल्पना लाजमी : रुदाली (1993), दमन (2001)
अपर्णा सेन : 36 चौरंगी लेन (1981), मिस्टर एंड मिसेज अय्यर (2001)
सई परांजपे : स्पर्श (1980), चश्मे बद्दूर (1981), कथा (1983), साज (1997)
मीरा नायर : सलाम बाम्बे (1988), कामसूत्र (1996), मानसून वेडिंग (2001)
अरुणा राजे : शक (1976), गहराई (1980), सितम (1982), रिहाई(1988)
तनूजा चन्द्रा : ज़मीन आसमान (1995), मुमकिन (1996), दुश्मन (1998), संघर्ष (1999), जिन्दगी का स$फर (2001), सुर (2002), फिल्म स्टार (2005), जिन्दगी रॉक्स (2006), होप एंड लिटिल शुगर (2006).
पूजा भट्ट : पाप (2003), हॉलीडे (2006), धोखा (2007), कजरारे (2010), जिस्म-2 (2012)
फराह खान : मैं हूं ना (2004), ओम शांति ओम (2007), तीस मार खां (2010), हैप्पी न्यू ईयर (2014)
जोया अख्तर : लक बाई चांस (2009), जिन्दगी फिर न मिलेगी दोबारा (2011), दिल धड़कने दो (2015)
मेघना गुलज़ार : फिलहाल (2002), जस्ट मैरिड (2007), दस कहानियां (2007), तलवार (2015)
बॉलीवुड में संघर्ष करती महिला निर्देशक
इन सभी फिल्मकारों में सिर्फ एक समानता है कि इन्होने बनी बनाई लीक पर चल रही कहानियों के बजाय ‘ रिअलिस्टिक कहानियों ‘ को प्राथमिकता दी. सुनने में अजीब और अविश्वसनीय लग सकता है कि फिल्म माध्यम में सदियों आगे चलने वाला हॉलीवुड इस क्षेत्र में बॉलिवुड से कही पीछे है. वहीं महिलाओं को अपने उचित प्रतिनिधित्व के लिए अभी भी संघर्ष करना पड़ रहा है.
हॉलीवुड में संघर्ष करती महिला निर्देशक
सिर्फ अमेरिकन फिल्मों की ही बात की जाए तो पिछले दस वर्षों में किसी भी महिला निर्देशक ने एक से अधिक फिल्म को डाइरेक्ट नहीं किया है. प्रतिभा का ऐसा अकाल रहा है कि कैथरीन बिगेलो ( हर्ट लॉकर 2009) के बाद आज तक किसी महिला निर्देशक को ऑस्कर नहीं मिला है.
पिछले दो वर्षों में जब से वीडियो स्ट्रीमिंग साइट ‘ नेटफ्लिक्स ‘ और ‘ अमेज़न प्राइम ‘ ने भारत में अपने पैर पसारे है तब से फिल्मकारों को खासकर रचनात्मक और प्रतिभाशाली महिला फिल्मकारों को एक नया मंच मिल गया है.