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दुनिया भर की सरकारें शेरों को बचाने को लेकर कई तरह के कार्यक्रम चला रही हैं. शेरों का संरक्षण करने के लिए कई निजी संस्थाएं भी कार्यरत हैं. इसके बाद भी गुजरात के गिर अभयारण्य में पिछले दिनों हुई 23 शेरों की रहस्यमय मौत जैसी घटनाएं होना निश्चित ही गंभीर चिंता का विषय है. गिर में शेरों की मौत का कारण समझ से परे है. मरने वाले ज़्यादातर शेर अमरेली ज़िले के गिर फॉरेस्ट नेशनल पार्क के पूर्वी हिस्से डालखानिया रेंज के हैं. 

संदेह के घेरे में वन महकमा 

गिर में शेरों की मौत पर वन महकमे की चुप्पी मीडिया रिपोर्ट्स आने के बाद टूटी और अधिकारियों ने अपने स्पष्टीकरण में कहा कि डालखानिया रेंज में बाहरी शेरों के घुसने से हुई वर्चस्व की लड़ाई इन शेरों की मौत का कारण है. सवाल यह है कि इतने बड़े जंगल के केवल एक ही हिस्से में इतने बड़े पैमाने पर लड़ाइयां क्यों हो रही हैं?

टूल पकड़ने के बाद से मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया. शीर्ष अदालत ने हाल ही में मामले की सुनवाई करते हुए गुजरात सरकार को इस पूरे मामले की जांच करने का आदेश दे दिया है.

क्या हो सकता है मौतों का कारण 

जिस तरह से शेरों की मौत हुई है, उससे अाशंका जताई जा रही है कि कहीं इन शेरों की मौत केनाइन डिस्टेंपर वायरस (सीडीवी) और विनेशिया प्रोटोज़ोआ वायरस से तो नहीं हुई है. सीडीवी वायरस वही खतरनाक वायरस है, जिससे प्रभावित होकर तंजानिया (अफ्रीका) के सेरेंगेटी रिज़र्व फॉरेस्ट में साल 1994 के दौरान एक हज़ार शेर मर गए थे.

इस बारे में तमाम वन्य जीव विशेषज्ञ साल 2011 से लगातार गुजरात के वन महकमे को आगाह कर रहे हैं, पर राज्य के वन महकमे ने इससे निपटने के लिए कोई माकूल बंदोबस्त नहीं किए. यदि वायरस फैला तो गिर में और भी शेरों को नुकसान पहुंच सकता है और सिंहों की यह दुर्लभ प्रजाति विलुप्त तक हो सकती है.

गिर में हैं छह सौ शेर 

दुनिया भर में एशियाई शेरों का अंतिम प्राकृतिक रहवास माने जाने वाले गिर में फिलहाल शेरों की संख्या 600 के करीब है. साल 2015 में हुई पांच वर्षीय सिंह-गणना के मुताबिक यहां शेरों की कुल संख्या 523 थी. सौराष्ट्र क्षेत्र के चार ज़िलों गिर सोमनाथ, भावनगर, जूनागढ़ और अमरेली के 1800 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैले गिर के जंगलों की आबोहवा एशियाई शेरों को खूब रास आती है.

कभी पूरे एशिया में थे शेर 

एक समय एशियाई शेर पूरे भारत और एशिया के दीगर देशों में भी पाए जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे इनकी आबादी घटती गई. आज ये सिर्फ गुजरात के पांच वन स्थलों गिर राष्ट्रीय उद्यान, गिर वन्यजीव अभयारण्य, गिरनार वन्यजीव अभयारण्य, मटियाला अभयारण्य और पनिया अभयारण्य में सीमित रह गए हैं.

इस बात को भारत ने गंभीरता से लिया और साल 1965 में गिर वन क्षेत्र को संरक्षित घोषित कर दिया गया. इन जंगलों का 259 वर्ग कि.मी. क्षेत्र राष्ट्रीय उद्यान घोषित है. डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीसवीं सदी बाघों के लिए अति खतरनाक रही. वही हालात अब भी जारी हैं.

संगठन का कहना है कि बीती सदी में इंडोनेशिया में बाघों की तीन उप प्रजातियां (बाली, कैस्पेन और जावा) पूरी तरह लुप्त हो गर्इं.

दुनिया भर में है वन्य जीवों को खतरा 

वन्य जीवों के लिए खतरे के मामले में पूरी दुनिया में हालात एक समान हैं. दक्षिणी चीनी बाघ प्रजाति भी तेज़ी से विलुप्त होने की ओर बढ़ रही है. संगठन का कहना है कि सरकारी और गैर-सरकारी संरक्षण प्रयासों के बावजूद विपरीत परिस्थितियां निरीह प्राणियों की जान ले रही हैं.

बाघों और शेरों की जान कई बार अभयारण्यों में बाढ़ का पानी भर जाने से भी चली जाती है, तो कई बार सुरक्षित स्थानों की ओर भागने के प्रयास में वे वाहनों से कुचले जाते हैं या शिकारियों का निशाना बन जाते हैं. 

30 साल पहले किया गया था अध्ययन 

भारतीय वन्यजीव संस्थान ने 30 साल पहले एक अध्ययन में एशियाई शेरों में ‘अंत: जनन’ के चलते आनुवंशिक बीमारी होने की बात कही थी. अगर ऐसा हुआ, तो इन शेरों की मौत हो जाएगी और उसके चलते एशिया से शेरों का अस्तित्व भी खत्म हो सकता है. बीमारी से आहिस्ता-आहिस्ता लेकिन कम समय में सभी शेर मारे जा सकते हैं.

इस आशंका के चलते वन्यजीव संस्थान ने सरकार को इन शेरों में से कुछ को दूसरे जंगल में स्थानांतरित करने की योजना बनाकर दी थी. संस्थान का मानना था कि अंत: जनन के चलते अगर एक जगह किसी बीमारी से शेरों की नस्ल नष्ट हो जाती है, तो दूसरी जगह के शेर अपनी नस्ल और अस्तित्व को बचा लेंगे.

गुजरात के जीव विज्ञानी रवि चेल्लम ने भी साल 1993 में दुर्लभ प्रजाति के इन शेरों को सुरक्षित रखने के लिए ज़रूरी कदम उठाने की बात क्खी थी. उन्हें कहा था कि इन शेरों की नस्ल बचने के लिए इनको किसी और जगह पर भी बसाना ज़रूरी है.

अन्य स्थानों पर होंगे शिफ्ट 

डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. की सलाह और एशियाई शेरों पर हुए शोधों के आधार पर भारतीय वन्यजीव संस्थान ने साल 1993-94 में पूरे देश में सर्वेक्षण के बाद कुछ शेरों को मध्य प्रदेश के कूनो-पालपुर अभयारण्य में शिफ्ट करने की योजना बनाई.

शेरों का पुनर्वास करने तत्कालीन केंद्र सरकार और भारतीय वन्यजीव संस्थान के सहयोग से मध्य प्रदेश में साल 1996-97 से एक कार्य योजना प्रारंभ की गई, लेकिन गुजरात सरकार अपने शेर ना देने पर अड़ गई. गुजरात सरकार की दलील है कि कूनो-पालपुर का पारिस्थितिकी तंत्र एशियाई शेर के अनुकूल नहीं है.

हालांकि यह आशंका निराधार है और कूनो-पालपुर अभयारण्य में शेरों की इस प्रजाति के लिए माकूल माहौल है. साल 1981 में स्थापित कूनो-पालपुर वनमंडल 1245 वर्ग कि.मी. में फैला हुआ है. इसमें से 344 वर्ग कि.मी. अभयारण्य का क्षेत्र है. इसके अलावा 900 वर्ग कि.मी. क्षेत्र अभयारण्य के बफर ज़ोन में आता है.

अदालत पहुंचा मामला 

गुजरात सरकार की हठधर्मिता के कारण मध्य प्रदेश सरकार ने साल 2009 में एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की. लंबी सुनवाई के बाद फैसला मध्य प्रदेश सरकार के हक में हुआ. अप्रैल, 2013 में अदालत ने गुजरात सरकार की दलीलों को खारिज कर शेरों को दूसरे घर के रूप में मध्य प्रदेश लाकर बसाया जाने का आदेश दिया.

नहीं माना अदालत का आदेश 

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर गुजरात ने मध्य प्रदेश को शेर देने से इंकार करटे हुए शीर्ष अदालत में पुनर्निरीक्षण याचिका दायर कर रखी है. जबकि हकीकत में पिछले ढाई साल में 200 से ज़्यादा शेरों की मौत हो चुकी है. इनमें कई मौतें अप्राकृतिक हैं.

ऐसे में सरकार का यह दावा खोखला निकला कि गिर के जंगलों में शेर पूरी तरह से महफूज़ हैं. एशियाई शेर भारत और दुनिया भर में बचे रहें, इसके लिए समन्वित प्रयास ज़रूरी हैं. गुजरात सरकार ज़िद छोड़कर इन शेरों में से कुछ शेर कूनो-पालपुर को स्थानांतरित करे, तभी जाकर शेरों की यह दुर्लभ प्रजाति हमारे देश में बची रहेगी.           (स्रोत फीचर्स)

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