भारत में परिधान के रूप में साड़ियों का प्रचलन कितना पुराना है इसके बारे में कोई भी ठीक-ठीक जानकारी नहीं है. लेकिन हजारों फैशन बदलने के बाद आज भी साड़ियां ज्यों की त्यों बनी हुई है. करोड़ों महिलाएं आज भी साड़ी पहनती हैं और इसमें कोई दो राय नहीं किसी भी महिला का व्यक्तित्व जितना साड़ी में निखरता है किसी और ड्रेस में नहीं.
बदलती रहीं संस्कृति लेकिन नहीं बदली साड़ी
भारतीय समाज पर कई संस्कृतियों का प्रभाव रहा है. यहां हुण, शक से लेकर मुगल-अंग्रेज सभी आए. कई संस्कृतियों का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव पड़ा, लेकिन साड़ी के स्वरूप में बदलाव नहीं आया. सदियां बीतने के बाद आज भी साड़ी भारतीय महिला का प्रमुख परिधान बनी हुई है और सदियों तक बनी रहेगी.
पहले कैसी पहनी जाती थी साड़ी
शुरुआत में साड़ी को केवल चारों ओर शरीर पर लपेट लिया जाता था. बाद में स्त्री-पुरूष दोनों ही धोती के रूप में साड़ी बांधने लगे. उस दौर में महिला और पुरूष दोनों ही साड़ी के ऊपर शरीर पर चादरनुमा कपड़ा लपेटते थे. कुछ समय बाद पुरूषों का पहनावा वही रहा मगर महिलाएं घेरदार तरीके में साड़ी पहनने लगीं, जिसके ऊपर वे चादर भी लपेटती थीं.
साड़ी पहनने की इस शैली में भी क्रमशः परिवर्तन आया और महिलाएं कपड़े के एक छोटे टुकड़े को वक्ष पर बांध कर कंचुकी का प्रयोग करने लगीं. इसके साथ वे घेरदार या धोती जैसी शैली में साड़ी पहनती थीं और शरीर के ऊपरी भाग को ढकने के लिए कभी महीन, पारदर्शी चादर या दुपट्टे पर प्रयोग करती थी. इस चादर या दुपट्टे को ‘वादर वसन’ कहा जाता था. काफी लंबे समय तक साड़ी दो टुकड़ों में ही उपयोग की जाती रही लेकिन कालांतर में दोनों हिस्सों की लंबाई कुछ बढ़ कर एक हो गई और तब आधुनिक साड़ी का स्वरूप प्रकट हुआ.
बदलती रही साड़ी और जुड़ते रहे प्रतीक
साड़ी से एक वस्त्र के साथ अनेक सांस्कृतिक प्रतीक जुड़ गए हैं. जब साड़ी का ऊपरी हिस्सा चेहरा व सिर ढकने की परम्परा से जुड़ जाता है तो वह घूंघट बन जाता है. जब यह वस्त्र गोद में शिशु को छिपाता है तो आंचल बन जाता है और जब किसी वस्तु को सहेज कर रखता है तो पल्लू का रूप ले लेता है.
साड़ी के विषय में खास बात यह भी है कि देश के हर हिस्से में साड़ी पहनने के तरीकों में भिन्नताओं के बीच साड़ी के अलग-अलग फेब्रिक्स, किनारी, प्रिंट और आंचल, हर राज्य विशेष की विशेषता बताते हैं.
देश में कहां कैसे पहनी जाती है साड़ी
देश के उत्तरी प्रांतों में बनारस और लखनऊ साड़ी निर्माण के प्रमुख केन्द्र माने जाते हैं. बनारस की बनारसी और बालूचरी साड़ियों के बिना हिंदू या भारतीय संस्कृति में शादी-विवाह के मौके पूरे नहीं समझे जाते. इन साड़ियों पर पहले सोने-चांदी के तारों द्वारा महीन कसीदाकारी की जाती थी, लेकिन आजकल चमकीले धागों का उपयोग होता है. फिर भी इन साड़ियों का महत्त्व आज तक बरकरार है.
आमतौर पर इन साड़ियों के लिए सिल्क या रेशम के धागों का उपयोग होता है. लखनऊ की चिकन के काम की साड़ियों की अपनी अलग विशिष्टता है. इसमें धागों से अधिक कढ़ाई का महत्त्व है. ये साड़ियों सूती, रेशमी या कृत्रिम धागों की बनी हो सकती हैं लेकिन इसमें कढ़ाई उसी रंग के हल्के या गाढ़े रंग वाले धागों से की जाती है.
दक्षिण में अलग हैं साड़ी के रंग
इधर दक्षिण प्रांत की साड़ियों में विविधता बहुत अधिक देखने को मिलती है. इसका एक कारण यह भी है कि यहां अन्य पोशाकों की अपेक्षा साधारण रूप से साड़ी ही ज्यादा व्यवहार की जाती है. यही यहां का प्रधान वस्त्र भी माना जाता है. यहां सूती, रेशमी, शुद्ध सिल्क या कृत्रिम धागों की बनी साडि़यां प्रयोग की जाती हैं. इनमें कांजीवरम, बंगलौर सिल्क और पोचमपल्ली आदि प्रमुख हैं.
मध्य भारत में साड़ी का सौंदर्य
मध्य भारत में चंदेरी और माहेश्वरी साडि़यों का बोलबाला है. चंदेरी साड़ी की विशेषता यह है कि इसमें जारी की छोटी-छोटी बूटियों का बना होना है. आमतौर पर ये साडि़यां हल्के रंगों की होती हैं. दूसरी प्रमुख साड़ी है-माहेश्वरी. यह नाम अहिल्याबाई द्वारा दिया गया. शिवभक्त अहिल्याबाई ने नर्मदा के तट पर तांत वस्त्रों की बुनाई आरंभ कराई थी और शिव के नाम पर ही ‘माहेश्वरी’ नाम दिया. यह साड़ी छोटे-छोटे चौकोर खंड (चेक) से बनी होती है और किनारी जरीदार होती है.
इसके अलावा ‘नारायणपेट’ और पूना की साड़ियां भी काफी लोकप्रिय हैं.उद्भव से विकास तक के अनेक युगों का अन्तराल तय करने के बाद भी साड़ी-साड़ी के स्वरूप में परिवर्तन नहीं आया और यह आज भी विविध रूपों में कोमलांगिनियों द्वारा धड़ल्ले से प्रयोग की जाती है.