गुजरात चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, सियासी तस्वीरें उतनी ही तेजी से बदल रही हैं. गुजरात में बीते 22 सालों से जमी बैठी भाजपा को उखाड़ फेंकने के लिए कांग्रेस ने एक से बढ़कर एक सियासी चालें चलीं, लेकिन कुछ कमजोर गुजराती नेताओं और रणनीति के कारण शायद कांग्रेस की चाल अब उलटी पड़ने लगी है. हालांकि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी गुजरात को अपनी प्रयोगभूमि मानकर पूरी तन्मयता के साथ संघर्ष कर रहे हैं. राहुल गांधी की मेहनत और योजना में कही कोई कमी नहीं है लेकिन स्थानीय नेताओं का अंतरविरोध और केन्द्रीय कुछ नेताओं का अप्रत्याशि असहयोग, गुजरात कांग्रेस को एक बार फिर सत्ता से दूर ले जा सकता है.
स्थानीय नेताओं में सियासत
दरअसल, गुजरात कांग्रेस में पहले तीन ध्रुव हुआ करते थे, लेकिन बापू शंकर सिंह वाघेला के कांग्रेस छोड़ जाने के बाद अब प्रदेश कांग्रेस दो खेमों में विभाजित हो गई है. पहला खेमा अहमद भाई पटेल का है और दूसरा खेमा भरत भाई सोलंकी का है. विगत दिनों भरत भाई का बड़ा सधा हुआ-सा बयान आया, जिसमें उन्होंने मोटे तौर पर खुद विधानसभा नहीं लड़ने की बात कही. हालांकि भरत भाई ने बड़ी शालीनता के साथ कहा कि मुझे तो 182 विधानसभा लड़ना है, इसलिए मैं खुद चुनाव नहीं लड़ना चाहता हूं, लेकिन इस बयान के बड़े गंभीर मायने हैंं.
प्रभावी हैं अहमद पटेल, ये है अंदर की खींचतान
सूत्रों की मानें तो विगत दिनों दिल्ली में आयोजित गुजरात के उम्मीदवारों की सूची तय करने के लिए बुलाई गई बैठक में भी भरत भाई अनुपस्थित थे. यही नहीं गुजरात में सक्रिय मेरे खास सूत्रों ने बताया है कि इस बार भी टिकट बंटवारे में अहमद पटेल और उनके गुट की खूब चली है, जबकि भरत सोलंकी के गुट को नजरअंदाज किया गया है. अगर ऐसा है तो इसका परिणाम बेहद खतरनाक होगा और गुजरात कांग्रेस का बना-बनाया हुआ काम खराब हो जाएगा. दिल्ली से मिल रही सूचना में बताया गया है कि कुछ दिल्ली के नेता भी गुजरात कांग्रेस की बिसात को कमजोर कर रहे हैं. उसमें से एक दक्षिण भारतीय पृष्ठभूमि के पूर्व केन्द्रीय मंत्री, तो दूसरे हरियाणा के प्रभावशाली नेता हैं. गुजरात में राहुल गांधी की मेहनत पर पानी फेरने में इन दोनों नेताओं की भी बड़ी भूमिका चिह्नित की जा रही है.
वैसे भी गुजरात कांग्रेस का अदना से अदना कार्यकर्ता अहमद पटेल के बारे में यही कहता है कि अहमद पटेल का नरेन्द्र मोदी के साथ बेहद नजदीक का रिश्ता है, इसलिए कमजोर और गैर प्रभावी नेताओं को आगे किया जा रहा है, साथ ही जिस समीकरण को भरत भाई प्रभावशाली बनाना चाह रहे थे उसे कमजोर किया जा रहा है. वैसे इस बात में कितनी सच्चाई ये देखने वाली बात है, लेकिन यदि ये सच है तो कांग्रेस का गुजरात फतह असंभव ही लगता है. हां, वैसे मेहनत के कारण गुजरात विधानसभा के बाद राहुल गांधी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुन लिए जा सकते हैं, लेकिन लगता है जमीनी तौर पर तो उन्हें असफल नेता का ही खिताब हाथ लगेगा.
पद्मावती का मुद्दा करेगा प्रभावी?
दूसरी ओर पद्मावती फिल्म के माध्यम से भी गुजरात के चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है. भाजपा अच्छी तरह जानती है कि गुजरात के राजपूत मतदाता भारतीय जनता पार्टी के साथ नहीं हैं. जानकारी में रहे कि गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में दो ही जातियों का प्रभाव है, एक राजपूत और दूसरे पटेल. पटेल भाजपा के बंधे-बधाए वोटर हुआ करते थे, लेकिन पटेल आरक्षण आन्दोलन ने इस समीकरण को बदल दिया है. अब बड़ी संख्या में पटेल मतदाता भाजपा से इतर विकल्प की तलाश करने लगे हैं. संभव है इस बार ज्यादातर पटेल कांग्रेस को वोट दें.
इधर, राजपूत पहले से कांग्रेस के साथ हैं. भाजपा यह अच्छी तरह जानती है कि राजपूत और पटेल यदि एक मंच पर आकर उनके खिलाफ वोटिंग कर गए तो उनका खेल खराब हो जाएगा. इसलिए अब भाजपा पद्मावती फिल्म के माध्यम से राजपूतों का दिल जीतने के फिराक में है. हालांकि भाजपा की ये चाल कितनी सफल होगी यह तो पता नहीं, लेकिन भावनाओं की राजनीति करने वाली भाजपा के लिए यह एक बढ़िया विकल्प प्रस्तुत कर रहा है. अब भाजपा और उसके सभी अनुशांगिक संगठन पद्मावती फिल्म के खिलाफ खड़े हो गए हैं. इससे राजपूतों में यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि उनके स्वाभिमान के साथ केवल और केवल भाजपा खड़ी है. इसका फायदा गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा जबरदस्त तरीके से उठाने की कोशिश करेगी.
क्या ये बड़ी भूल कर रही कांग्रेस?
इस मामले में कांग्रेस ने थोड़ी देर कर दी. जैसे पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने पद्मावती पर प्रतिबंध लगाने की बात कही है उसी तरह कांग्रस को इस फिल्म के खिलाफ पहले मोर्चा खोल देना चाहिए था. इसमें कांग्रेस के कूटनितिज्ञों ने देर कर दी और अब चाल और मोहरा दोनों भाजपा के हाथ में है. भाजपा इस चाल को बेहद चतुराई से चलेगी और पूरी कोशिश करेगी कि गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में राजपूत मतदाता कम से कम दो भागों में विभाजित हो जाएं. यदि यह करने में भाजपा सफल रही तो भाजपा को इसका पूरा लाभ मिलेगा.
यदि सियासी गलियारों की इन बातों को सही माना जाए तो ये दो ऐसे कारण हैं जिससे कांग्रेस का बना-बनाया खेल बिगड़ता हुआ दिखाई दे रहा है. हालांकि अभी भी समय है. उसे संभाला जा सकता है, लेकिन जो लोग अब गुजरात में कांग्रेस के सिपहसालार हैं वे कांग्रेस नेतृत्व को सही जानकारी उपलब्ध नहीं करा रहे हैं. अहमद पटेल के ऊपर पहले से नरेन्द्र मोदी के सांठ-गांठ का आरोप लगता रहा है, लेकिन वे आज भी बिना किसी जमीनी ताकत के कांग्रेस के तारणहार बने हुए हैं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बेहद करीब हैं और गुजरात कांग्रेस की राजनीति के केन्द्र बिन्दु. गोया उनके समर्थकों के द्वारा यह भी अफवाह फैलाई जा रही है कि यदि कांग्रेस की सरकार बनीं तो अहमद भाई ही प्रदेश की कमान संभालेंगे. यह संदेश कांग्रेस के लिए बेहद खतरनाक साबित हो रहा है. हिन्दू मानस वाला गुजराती मतदाता इस संदेश से ध्रुवीकृत हो रहे हैं. इसका भी खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ सकता है.
फिलहाल दोनों ही पार्टियां अपनी-अपनी पीठ थपथपा रही है. परिणाम क्या होगा वह 18 दिसम्बर को पता चलेगा लेकिन जिस प्रकार गुजरात में परिवर्तन की लहर चली थी उसमें थोड़ी स्थिरता तो दिखने लगी है. अब कांग्रेस की अगली रणनीति का इंतजार है. यदि इसी ट्रैक पर कांग्रेस दौड़ती रही तो अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त करना शायद संभव नहीं हो.
(इस लेख के विचार पूर्णत: निजी हैं. India-reviews.com इसमें उल्लेखित बातों का न तो समर्थन करता है और न ही इसके पक्ष या विपक्ष में अपनी सहमति जाहिर करता है. यहां प्रकाशित होने वाले लेख और प्रकाशित व प्रसारित अन्य सामग्री से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. आप भी अपने विचार या प्रतिक्रिया हमें editorindiareviews@gmail.com पर भेज सकते हैं.)