कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी इस समय खासी चर्चा बटोर रहे हैं. उनके चुटीले अंदाज में किये गए ट्वीट निश्चित रूप से पहले से अधिक सुर्खियां बटोर रहे हैं तो अपेक्षाकृत उनका पीआर भी सही दिशा में जाता प्रतीत हो रहा है. इसी के साथ कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उनकी ताजपोशी की बातें कमोबेश उनकी पार्टी का छोटे से बड़ा नेता तक स्वीकार कर चुका है, मतलब पार्टी में वह सर्वमान्य नेता के तौर पर पहले से ही स्थापित हो चुके हैं.
एक और बात पर गौर किया जाए तो कांग्रेस पहले ही इतने ज्यादा राज्यों में हार चुकी है कि अब इससे ज्यादा क्या हारेगी भला? मतलब एक छोटी सी जीत भी उसकी उपलब्धि में ही काउंट की जाएगी, जैसे गुरदासपुर लोकसभा का उपचुनाव और हिमाचल जैसा राज्य अगर हार भी जाती है तो उसे एंटी-इंकम्बेंसी बताने वालों की कमी नहीं है.
ऐसे बढ़ रहा कांग्रेस का आत्मविश्वास
पंजाब के गुरदासपुर उपचुनाव में मिली जीत को जिस तरह से मीडिया कवरेज मिली, उससे साफ जाहिर होता है कि मीडिया और तमाम लोग कांग्रेस में जबरदस्ती ही सही उम्मीद देखने की कोशिश कर रहे हैं. इसके पीछे तमाम वजहें गिनाई जा सकती हैं जिसमें प्रमुख है केंद्र सरकार से बढ़ रही नाउम्मीदी. हालांकि बड़ा सवाल वही है कि क्या कांग्रेस और उसके नेता इन अपेक्षाओं का बोझ उठाने के लिए तैयार हैं?
दरअसल, पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि खुद भारतीय जनता पार्टी के भीतर से केंद्र सरकार के कामकाज पर जिस तरह से आवाजें उठी हैं, उससे इस बात को बल मिला है कि ‘मोदी लहर’ अब ढलान की तरफ है. नोटबंदी और जीएसटी जैसे प्रावधानों ने तात्कालिक रूप से अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ने का काम किया है, इस बात में कोई शक नहीं बचा है. इसमें यह भी जोड़ा जा सकता है कि नौकरियों में हो रही लगातार गिरावट से केंद्र सरकार खुद सकते में है और इसलिए कभी जीएसटी दरों में संशोधन तो कभी आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन इस ओर संकेत भी करता है.
अर्थव्यवस्था की हालत और विपक्ष के सवाल
वित्तमंत्री अरुण जेटली लगातार अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक रूप से मजबूत होने की बात दुहरा रहे हैं, किन्तु उनका स्वर अकेला ही है. इसका मतलब यह है कि अगले कुछ सालों में रोजगार की हालत बेहतर ही हो जाएगी, इस बात की ताकीद कोई भी अर्थशास्त्र दावे के साथ नहीं कर पा रहा है. हां, अटकलों और जुमलों की बात अपनी जगह है.
लब्बो लुआब यह है कि जनता भी अब अटकलों और जुमलों की भाषा समझने लगी है और अगर ऐसा नहीं होता तो टेलीविजन का एक लीक वीडियो इतना वायरल नहीं होता. जी हां, श्याम रंगीला द्वारा की गई नेता मोदी की मिमिक्री इतनी ज्यादा पापुलर होने के पीछे आप कोई सामान्य वजह नहीं ढूंढिएगा. विरोधी नेता तो एक दूसरे का मजाक उड़ाते ही हैं, किन्तु सामान्य जनता किस पर यकीन करती है, यह बात कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है.
गुजरात हिमाचल जीतेगी भाजपा लेकिन?
कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज तक पप्पू की छवि पर जनता की एक तरह से मुहर ही लगी थी पर अब ‘मितरों’ और ‘भाइयों-बहनों’ जैसे शब्दों का भी मजाक उड़ाया जाने लगा है. मतलब साफ है और वह यह है कि कांग्रेस पार्टी के उभार के लिए जमीन उपजाऊ अवश्य दिख रही है.
देखा जाए तो गुजरात जैसे राज्यों के स्थानीय समीकरण भी उस तरीके से भाजपा के पक्ष में नजर नहीं आ रहे हैं, जैसे पहले हुए करते थे. पटेल आंदोलन के अतिरिक्त भी ‘विकास पागल हो गया है’ जैसा कैम्पेन भाजपा की नींद उड़ाए हुए है. पर इतने के बावजूद भी अरुण जेटली जैसे नेता सीना ठोक कर कह रहे हैं कि ‘गुजरात चुनाव से साबित हो जायेगा कि जनता ने जीएसटी और नोटबंदी पर क्या रुख बनाया है.’
मतलब एक तरह से भाजपा अपनी जीत के प्रति आश्वस्त भी नजर आ रही है, खासकर गुजरात में. हिमाचल चुनाव में भी कांग्रेस भ्रष्टाचार के आरोपी रहे सीएम वीरभद्र सिंह को ही सीएम कैंडिडेट घोषित करने के प्रति मजबूर ही दिखी है. इसका नतीजा यह हुआ है कि कांग्रेस में अंदरूनी फूट के साथ साथ कई नेता भाजपा के साथ जा जुड़े हैं. मुख्य बात यह है कि भाजपा हर कहीं पीएम मोदी के नाम पर वोट बटोरने की कोशिश करती रही है और ऐसे में जब ‘नौकरियों में भारी कमी’ केंद्रीय स्तर पर मुद्दा बन रही है तो दूसरी पार्टियों, खासकर कांग्रेस के लिए एक मौका तो बनता ही है, पर मुश्किल खुद कांग्रेस की ही है.
कांग्रेस पर उठते हैं ये सवाल
कांग्रेस की कार्यशैली और उसके वंशवाद पर पहले खूब सवाल उठे हैं और कांग्रेस ने 2014 के बाद इन सवालों को अनसुना करने की रणनीति पर बखूबी कार्य किया है. इसका कुछ फायदा उन्हें जरूर मिला है पर क्या कांग्रेस नेतृत्व पर बिना व्यापक बदलाव के जनता भरोसा भी कर पा रही है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसे बार-बार कांग्रेस नेतृत्व और कांग्रेस कार्यकर्ताओं को खुद से पूछते रहना चाहिए. ऐसे प्रश्न राहुल गांधी से हटकर भी हैं.
गुजरात जैसे महत्वपूर्ण चुनाव के लिए कांग्रेस पार्टी उधर जोर लगा रही है और विडम्बना देखिये कि अहमद पटेल के अस्पताल में किसी आतंकी के होने का खुलासा हुआ और कांग्रेसी नेता लीपापोती में जुट गए. उधर पी. चिदंबरम कश्मीर के स्वाययत्ता का राग अलापते नजर आये. क्या वाकई ऐसी सोच, ऐसी दृष्टि से भाजपा में आ रही कमजोरी को कांग्रेस अपना हथियार बना सकती है? या फिर उसी पुराने ढर्रे पर चलकर भाजपा को खुद कांग्रेस ‘संजीवनी’ देने का ही कार्य करेगी. जैसा कि कहा जाता रहा है कि मोदी और भाजपा का सबसे बड़ी यूएसपी ‘राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस’ ही हैं.
(इस लेख के विचार पूर्णत: निजी हैं. India-reviews.com इसमें उल्लेखित बातों का न तो समर्थन करता है और न ही इसके पक्ष या विपक्ष में अपनी सहमति जाहिर करता है. यहां प्रकाशित होने वाले लेख और प्रकाशित व प्रसारित अन्य सामग्री से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. आप भी अपने विचार या प्रतिक्रिया हमें editorindiareviews@gmail.com पर भेज सकते हैं.)