यह दौर इमेज मेकिंग, इमेज बिल्डिंग और फ्रेम बनाने का है. व्यक्ति हो, संस्थान हो, कंपनियां हों या फिर सरकारें, सोशल मीडिया की दर्जनों दुकानों और प्लेटफॉर्म के बीच हर कोई दिन-रात अपने किए धरे का लेखा-जोखा डालकर स्वयं की इमेज बनाने में जुटा है.
जाहिर है सभ्यता के कालक्रम में सर्वाधिक अभिव्यक्त इस समय में दुनिया जानती है कि आज की तारीख में इमेज नहीं तो कुछ भी नहीं. लिहाजा हर आम और खास इमेज मेकिंग के लिए हाथ-पैर मार रहा है, तो फिर ऐसे दौर में सरकार की इमेज तो बड़ी महंगी और फिर वह भी मोदी सरकार की छवि तो हाईप्रोफाइल है.
इस समय में जबकि हर 24 घंटे में कोई आम वायरल हो रहा है और कोई खास ट्रोल हो रहा है, तो प्रधानमंत्री ने आदतनुसार राष्ट्र के नाम किए गए एक “औचक संबोधन” में नये कृषि कानूनों, बिलों को संसद में संवैधानिक प्रक्रिया के तहत वापस लेने की घोषणा कर दी. अब देखना यह है कि सरकार का यह कदम किसान आंदोलन से डैमेज हुई इमेज को कितना कंट्रोल कर पाएगा और जनता व किसानों के इमोशंस को कितना अपने पाले में ला पाएगा?
दरअसल, बीते साल वह नवंबर का ही महीना था जब पहले पंजाब, हरियाणा और बाद में देशभर से पहुंच रहे किसान, नये कृषि बिल को वापस लेने के लिए धरना, प्रदर्शन करने के साथ जुटने लगे थे. सिंघु बॉर्डर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के किसानों के आंदोलन का केंद्र बन गई थी.
आंदोलन की आंच 26 जनवरी 2021 तक आते-आते दावानल में बदलने लगी. दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र में गणतंत्र दिवस के दिन ही जय जवान, जय किसान वाला किसान, ट्रैक्टर लेकर दिल्ली की सड़कों पर चुनी हुई सरकार से नाराज था.
यह आंदोलन 26 जनवरी के दिन ही हिंसक हुआ और सरकार की कथित उजली इमेज का एक हिस्सा किसान आंदोलन की स्याह और सुर्ख होती रौशनी में काला पड़ने लगा. 26 जनवरी की वह आंच सरकार की इमेज पर इतनी भारी पड़ी थी कि अंतरर्राष्ट्रीय मीडिया में भी मोदी सरकार की छवि पर असर पड़ने लगा्.
इमेज पर बेहद संवदेनशील रही मोदी सरकार किसान आंदोलन को खत्म करने के लिए फिक्रमंद थी. कोरोना से जंग लड़ रही सरकार ने कई संकेतों से किसानों के साथ बातचीत के प्रस्ताव रखे. वार्ताओं का दौर चला, कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर मनुहार लगाते रहे, सरकार के अलग-अलग मंत्री समझाते रहे, मीडिया, प्रशासन, संस्थाएं, एनजीओ, ब्यूरोक्रेट्स यहां तक कि किसानों की एक जमात किसान आंदोलन के पक्ष में भी सड़कों पर उतरी, लेकिन सिंघु बॉर्डर पर बैठे किसान कृषि बिल को ना समझे, ना स्वीकार कर पाए.
सरकार जितना किसान आंदोलन पर बोलती उसकी इमेज पर किसान आंदोलन की परछाई और गहरी होती चली गई.
इधर अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर किसान आंदोलन को लेकर दो फांके साफ नजर आने लगी. खेमे बंट गए और विपक्ष के लिए चुनाव में बाकायदा एक बड़ा एजेंडा तय हो गया. हाल ही के दिनों मुजफ्फपुर कांड ने तो जैसे किसान आंदोलन को सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना दिया था.
सीधे शब्दों में कहा जाए तो- मोदी सरकार के 10 “कथित अच्छे कामों” से बनीं इमेज, किसान आंदोलन से ही सबसे ज्यादा दरक रही थी और इसी दरकती इमेज की दरारों को भरने के लिए ही कृषि कानूनों पर मोदी सरकार ने कदम वापसी कर ली.
मीडिया रिपोर्ट्स और सरकार व संगठन की आंतरिक रिपोर्ट्स बताती है कि नये कृषि बिल की वापसी को लेकर चल रहा किसान आंदोलन पश्चिमी यूपी में सरकार की छवि किसान विरोधी बना रहा था और विरोध की यह ध्वनियां नारे में तब्दील होकर विपक्ष की रैलियों में लहराने की तैयारी में थी.
पश्चिम यूपी की किसान पंचायतों में टिकैत की बैठकों में उमड़ती भीड़, विपक्ष व किसानों के एक तबके में सरकार की किसान विरोधी उभरती छवि मोदी सरकार के लिए चिंता की विषय थी. जाहिर है मोदी सरकार को साल 2022 के 7 राज्यों के चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले इमेज पर छाई किसान आंदोलन की सुर्ख छाया को हटाकर इसे प्रकाशमय बनाना था. प्रकाश पर्व पर सरकार की बत्ती जगना कोई नीर-क्षीर विवेक का जागृत होना नहीं है, बल्कि चुनाव से पहले किसान आंदोलन से डैमेज हो रही इमेज को कंट्रोल करना है.
देखना यह है कि इस बेहद शातिर, इत्मिनान और पूरा चुुुुुनावी गुणा-भाग से लिया गए फैसले से कितना चुनावी गणित संभलता है, कितनी सीटों पर संतुलन बनता है और पंजाब में केवल किसान आंदोलन पर ही अकाली दल जैसे पुरानी साथी को खो चुकी सरकार की पटरी ट्रैक पर लौटती है या नहीं?
किसान तो यह लड़ाई जीत गए, लेकिन सरकार जो दो कदम पीछे आई उसके लिए असली परीक्षा 2022 से लेकर 2024 के चुनाव ही हैं. यदि सत्ता वापसी हुई तो किसानों को रिझाने, मनाने में फैसला श्रेय बन जाएगा, लेकिन सत्ता फिसल गई और चुनावों में पिट गए तो मोदी सरकार का कृषि बिलों पर कदम वापसी का यह फैसला, उसकी कथित इमेज को इतिहास में नई छवि के रूप में स्थापित करेगा.