नवंबर-दिसंबर का महीना है और दिल्ली में फिर से प्रदूषण का हो हल्ला है. बोम वैसी ही मची है जैसे हर साल मचती है. फेफड़ों पर दबाव है ऑक्सीन के लाले हैं. बच्चे बूढे खांस रहे हैं और बाहर की आवाजाही बंद है. सालों से प्रदूषण से लड़ रही दिल्ली में यूं तो 12 महीने ही प्रदूषण बना रहता है, लेकिन धुआं घर में घुसता है, गले में जाकर दम घोटने लगता है और हालात मरने मारने वाले हो जाते हैं तब सरकारें, संस्थाएं और पर्यावरण के हितैषी जनता को जगाते हैं.
आखिरी में देश की सर्वोच्च अदालत सरकारों को तलब करती हैं और फटकार लगाती हैं तब सरकारों को प्रदूषण समझ में आता है. जाहिर है इस साल भी यही हो रहा है. दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और केंद्र की ताकतवर सरकारों से सुप्रीम कोर्ट प्रदूषण पर हिसाब-किताब मांग रहा है.
बहरहाल, कोरोना से बीते दो सालों से लड़ रही देशभर की सरकारें स्वास्थ्य के मामले में जग ही रही हैं. फिलहाल कोविड गया नहीं है और जागरण अभी तक चल रहा है और इसी जागरण में बीच में दिल्ली का प्रदूषण आ गया है. गोया कि प्रदूषण प्रदूषण ना होकर ठंड से पहले का कोई मौसम हो गया है और प्रदूषण बढ़ने की चिंता एक खबर, जिन्हें हर साल आना. लगता है प्रदूषण् हमारे ऋतु चक्र का हिस्सा हो गया है.
खैर, इस बार सोने पर सुहागा है. अच्छे शब्दों में कहें तो सिर मुंडाते ही ओले पड़ने वाली स्थिति है. 100 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश की राजधानी दिल्ली महामारी का पैकेज लेकर बैठी है. स्वाइन फ्लू, जीका वायरस, डेंगू, कोरोना और ऊपर से प्रदूषण. हालात ऐसे हैं जैसे दिल्ली में रहना ही मरने की तैयारी करना है. दिल्ली इस दफे कोरोना से नहीं प्रदूषण से लॉक हुई है. दफ्तर, स्कूल से लेकर हर तरह की उस हरकत को बंद कर दिया गया है जिसके नाम से हवा में जहर घुल रहा था.
दिन हवा हुए हैं जब दिल्ली के प्रदूषण से निपटने के लिए कभी केजरीवाल सरकार ने ऑड और ईवन जंतर ढूंढा था. जंतर के तौर पर केजरीवाल सरकार का यह प्रयास चर्चा और सराहना के खाते में तो गया था, लेकिन जल्द ही नीरसता की झोली में चला गया. किसी ने विरोध किया तो किसी ने सियासत. ऑड ईवन प्रदूषण के इलाज का एक मनोवैज्ञानिक इलाज सा लगता है.
कभी आपने सोचा है कि क्या प्रदूषण बढ़ने का यह राग हमेशा का नहीं हो गया है और रोना तो जैसे इन दिनों में हर साल का. नवंबर लगा नहीं और दिवाली हुई नहीं कि प्रदूषण की चिंता होने लगती है. हर साल पराली नाम के बिल फटते रहे हैं, सड़कों पर दौड़ती कारों, गाड़ियों और आसपास चल रहे कंस्ट्रक्शन पर ठीकरा फूटता है जबकि रही-सही कसर पटाखों पर फूटती है. सवाल यह है कि क्या प्रदूषण का कोई स्थायी इलाज है? छठ पर्व पर बेतहाशा प्रदूषित यमुना में अर्घ्य देती महिलाओं की तस्वीरें पूरी दुनिया में हमारी क्या छवि गढ़ रही है?
इस साल तो सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की आप सरकार को फटकार लगाते हुए पूछ भी लिया है कि क्या बंद किया जा सकता है और क्या ऐसे कदम उठाए जा सकते हैं कि जनता को कुछ तो राहत मिले.
बुधवार 17 नवंबर को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब सरकारों को ही फटकार लगाई. सीधे सबसे जरूरी बातें कहीं-
- प्रदूषण पर ठोस उपाय नहीं हो रहे हैं.
- सिर्फ बैठकों से काम नहीं होगा बल्कि उपाय करना होंगे.
- प्राइवेट गाड़ियों पर रोक लगे, निर्माण कार्य रोके जाएं,
- किसानों को पराली के लिए समझाया जाए.
- चीफ जस्टिस एनवी रमना ने सरकारी और नागरिक जिम्मेदारी की ओर भी इशारा किया- कहा कुछ जिम्मेदारी लेनी होगी केवल न्यायिक आदेश से क्या हो जाएगा? शीर्ष अदालत ने पटाखे जलाए जाने पर भी नाराजगी जताई. कहा- बैन के बाद भी दिल्ली में 10 दिन पटाखे जले, जबि यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रदूषण में पटाखों का योगदान नहीं है.
इन सवालों पर सरकारों ने अपने-अपने हिसाब से जवाब भी थमा दिए. केंद्र ने वर्क फ्रॉम होम से इनकार कर दिया भविष्य के लिए कुछ खास रणनीति बनाने पर बात कही, इधर, दिल्ली ने कंस्ट्रक्शन वर्क पर रोक का वादा करके मैट्रो के फेरे की बात थमा दी, जबकि हरियाणा ने केंद्र के सारे उपायों को फॉलो करने का वचन दोहरा दिया जो उसे दोहराने की जरूरत भी नहीं थी. पंजाब ने सीधे कहा- हम तो एनसीआर में आते ही नहीं लेकिन पराली पर नियंत्रण करेंगे. प्रदूषण जस का तस है जबकि मामले की अगली सुनवाई 24 को फिर होगी.
बहरहाल, प्रदूषण पर हर बार आने वाली इन खबरों को लेकर हम ढीठ तो नहीं हो गए हैं? जानकारों ने सब टटोल लिया. किसी ने दिल्ली का भूगोल नाप दिया तो पर्यावरणवादियों ने फैक्ट्रियां, कारों, पटाखों, कंस्ट्रक्शन से लेकर पराली सब उठा लाए जैसे हर साल प्रदूषण के नाम का ठीकरा उठाने के लिए लाते हैं, लेकिन प्रदूषण है कि जाने का खत्म होने का नाम नहीं ले रहा. खराब और प्रदूषित हवा के मानक दिल्ली में 12 महीने खतरनाक स्तर के आसपास ही बने रहते हैं ऐसे में क्या महीने भर में हालात खराब होने पर हम चिल्लाते हैं और बाद में चुप्पी साध लेते हैं जैसे कुछ हुआ ही ना हो.
क्या वाकई प्रदूषण दिल्ली का स्थायी प्राकृतिक वातावरण बन गया है और प्रदूषण बढ़ाने वाले एलिमेंट इसे और बढ़ा देते हैं? क्या हमारे समाज के लिए प्रदूषण एक मौसम हो गया है और प्रदूषण की चिंता एक खबर जिसे पढ़ते, सुनते ही हमें अलर्ट हो जाना है कि प्रदूषण बढ़ गया है लिहाजा चिंता जताएं.
उम्मीद और आस तो केवल देश की सर्वोच्च अदालत से ही है.