“ये दौलत भी ले लो/ये शोहरत भी ले लो/
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी/
मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन/
वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी.”
सुदर्शन फाकिर की लिखी और जगजीत सिंह की गाई इस नज्म का ज़िक्र न हो ऐसा मुमकिन नहीं. यह नज़्म हमारा बचपन है, हमारी नींद और हमारे ख़्वाब भी. पर अब धूल मिट्टी से सना वो बचपन कहां, जिसमें एक अलग दुनिया का अहसास होता था. अब तो न दादी की लोरियां सुनाई देती है, न अंटियों की मजेदार आवाज़ और न ही आसमान में कभी तारे गिनने का सुकून मिलता हैं. लेकिन इस नज़्म को सुन हम अपने बचपन की मुकम्मल यादों के दरिया में गोता लगाने, और छुटपन की गलियों में लौटने का मौका जरूर मिल जाता है. लेकिन अब हमारे बच्चों के बचपन में ऐसी पाकीज़गी कम नज़र आती है.
मुझे याद है, मेरा बचपन कितना हसीं और मस्ती करते हुए बीता. सुबह आम के पेड़ के नीचे लुकाछिपी खेलते हुए, दोपहर की तीखी धूप में खेतों के ऊबड़खाबड़ मैदान में क्रिकेट खेलते और रात गांव की गलियों में दौड़ मस्ती करने में. सच पूछो तो अब बच्चों में वो बचपना ही नहीं रहा. वो शरबती बचपना. हमने हमारी इस पीढ़ी को बचपन की नादानियों में ही पाल रखा है.
अब बच्चों बचपन टीवी देखने, स्कूल के बोझ और काल्पनिक कहानियों तले दुबककर रह गया. यूं तो हर माता-पिता का अदना से ख्वाब रहता है कि वह अपनी आने वाले बच्चों को बेहतर जीवन दे सकें, लेकिन हम उन्हें बेहतर बचपन देने में नाकाम है. बचपन के हर बागान उजड़े है.
कवि चंद्रकांत देवताले की एक मर्मस्पर्शी कविता है-जिसमें वह लिखते है
थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे.
थोड़े से बच्चों के लिए एक बगीचा है
उनके पांव दूब पर दौड़ रहे हैं
असंख्य बच्चों के लिए कीचड़-धूल और गंदगी से पटी गलियां हैं,
जिनमें वे अपना भविष्य बीन रहे हैं.
यह कविता पढ़ते ही समाज में व्याप्त अमीरी-गरीबी की खाई ओर गहरी दिखाई देने लगती है. एक आम भारतीय की तरह मेरे जेहन में भी यह पढ़कर कई सवाल कौंधने लगते हैं. साथ ही सोचने पर मजबूर भी करते हैं कि क्या यह वही देश है, जो 21वीं सदी में अपने को विकसित राष्ट्र के मुकम्मल अहसास की बात बुलंदी से पूरी दुनिया के सामने रखने की कोशिश कर रहा है? देश और समाज में अमीरी और गरीबी की खाई की वीभत्स तस्वीर कई जगह देखी जा सकती है.
देश में पढ़ने को हजारों स्कूल, मदरसे, कॉलेज, विश्वविद्यालय हैं. सीखने के लिए नई-नई भाषाएं हैं, पहनने के लिए फैशनेबल कपड़े हैं. खेलने के लिए बड़े-बड़े मैदान और स्टेडियम हैं. दूसरी तरफ देखें तो शर्मिंदगी महसूस होती है, क्योंकि यह सब सीमित वर्ग यानी की अमीर परिवार के बच्चों के लिए ही है. असंख्य बच्चे इन्हीं तमाम स्कूलों और सुख-सुविधाओं से दूर जूते चमकाते नजर आ रहे हैं, पन्नियां बीन रहे हैं, फैक्ट्रियों, होटलों, ढाबों, खदानों, भट्टियों, खेतों, सिनेमाघरों की अंधेरगर्दी में चमकते भविष्य का सूरज देख रहे हैं. आखिर क्यों ये बच्चे कीचड़ धूल, मिट्टी और गंदगी से पटी गलियों में अपना भविष्य बीनने को विवश हैं. इसी समाज ने पूरी दुनिया के सामने भारत के दो चेहरे बताए हैं. इन्हीं चेहरों के जरिए पूरी दुनिया हमें जानती है.
वास्तव में इसी पूंजीवादी समाज ने अमानवीयता की काली तस्वीर दुनिया को दिखाई है. देश पर हावी पूंजीवादी हमें सोचने को मजबूर करता है कि हम सभ्य नहीं बल्कि घिनौने एवं स्वार्थी समाज में रहते हैं. गुलामी की जंजीरों से समाज मुक्त नहीं हुआ है. समाज की अनदेखी जकडन में बच्चे फंसे हुए हैं. शायद यही कारण है कि देश के करोड़ों नौनिहालों का भविष्य सफेदपोश कालीन के नीचे बिखरा हुआ है. मासूम बच्चे काम कर रहे हैं. पीठ पर गंदगी भरे बोरे लटकाने को मजबूर हैं. शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां बच्चे काम करते नहीं दिखाई देते हों.
कवि राजेश जोशी के यहां भी कोहरे से ढंकी सड़कों पर बच्चे अल सुबह काम पर निकलते हैं. उनकी आक्रोशित कलम कहती है-
क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आंगन
खत्म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है, लेकिन इससे भी ज्यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्बमामूल
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि स्लमडॉग मिलेनियर जैसी फिल्मों के जरिए देश की झुग्गी-झोपड़ियों के बच्चों को नई सुबह का अलख जगाते दिखते हैं, लेकिन क्या इन चंद बच्चों की जीवन की खुशहाली से राष्ट्र के करोड़ों बच्चों के सपनों की नई उड़ान मिल पाएगी. यह अब 21वीं सदी के भारत के सामने सबसे बड़ा सवाल है.